एक सूफी फकीर था। उसकी प्रार्थना में एक बात हमेशा होती थी।
एक दिन उस फकीर के शिष्य उससे पूछने लगे- बाबा! हम भी प्रार्थना करते हैं और हमने औरों को भी प्रार्थना करते देखा है, लेकिन यह बात हमें कभी भी समझ में नहीं आती कि आप रोज-रोज यह क्या कहते हो, हे प्रभु! थोड़ा दुःख मुझे तू रोज देते रहना। यह भी कोई प्रार्थना है क्या? लोग प्रार्थना करते हैं कि सुख दो, और आप प्रार्थना करते हो, हे प्रभु! थोड़ा दुःख रोज देते रहना।
फकीर ने कहा- सुख में तो मैं सो जाता हूं और दुःख मुझे जगाता है। सुख में तो मैं अक्सर परमात्मा को भूल जाता हूं और दुःख में मुझे उसकी याद आती है। दुःख मुझे उसके करीब लाता है। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं, हे प्रभु! इतना कृपालु मत हो जाना कि सुख ही सुख दे दे, क्योंकि मुझे अभी अपने पर भरोसा नहीं है, कि तू सुख ही सुख दे दे तो मैं सो ही जाऊं, जगाने को कोई बात ही ना रह जाए और अलार्म ही बंद हो गया। तू अलार्म बजाते रहना और मुझे थोड़ा-थोड़ा दुःख देते रहना, ताकि तेरी याद उठती रहे, और मैं तुझे भूल न पाऊं और कहीं तेरा विस्मरण न हो जाए।
"कुछ तो चाहत होगी
इन बूंदों की भी,
र्ना कौन वापस गिरना चाहेगा इस जमीन पर
आसमान में पहुंच कर...!"
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य)
Comments