पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता ने मंच बदला है। अब वह टीवी स्टूडियो से निकलकर यूट्यूब जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर जा पहुंची है। ऐसे में सवाल यह नहीं कि कौन क्या कह रहा है — बल्कि सवाल यह है कि कितनी बार, कितने विषयों पर और कितनी निष्पक्षता के साथ कह रहा है।
यह कहानी है पांच चर्चित पत्रकारों की — अजित अंजुम, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा और साक्षी जोशी — जिन्होंने पारंपरिक मीडिया छोड़कर यूट्यूब को चुना। पिछले 5 वर्षों में इन 5 पत्रकारों ने मिलकर करीब 15,000 से अधिक वीडियो अपलोड किए, जिनमें से लगभग सभी वीडियो मोदी सरकार की आलोचना पर केंद्रित रहे।
🎯 डेटा और सच्चाई: कितने वीडियो, कितना विरोध?
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अजित अंजुम –
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सक्रियता: 5 वर्षों से यूट्यूब पर
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कुल वीडियो: 5,700+
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विषय: लगभग सभी वीडियो मोदी सरकार की आलोचना पर आधारित
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विश्लेषण: वीडियो शीर्षक और विषय वस्तु स्पष्ट रूप से सत्ता विरोध पर केंद्रित हैं। केंद्र सरकार की योजनाओं या उपलब्धियों पर कोई संतुलित दृष्टिकोण दिखाई नहीं देता।
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रवीश कुमार –
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सक्रियता: 1 वर्ष 8 महीने
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कुल वीडियो: 968+
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विषय: मोदी सरकार की नीति, बयान, घटनाओं की आलोचना
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विश्लेषण: NDTV छोड़ने के बाद स्वतंत्र आवाज के तौर पर सामने आए, लेकिन कंटेंट में विपक्ष समर्थक झुकाव स्पष्ट है। राज्य सरकारों की कमियों पर लगभग मौन।
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पुण्य प्रसून वाजपेयी –
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सक्रियता: 5 वर्षों से यूट्यूब पर
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कुल वीडियो: 1,700+
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विषय: मोदी सरकार की आलोचना, चुनाव विश्लेषण
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विश्लेषण: लगभग हर वीडियो में विपक्ष की सकारात्मकता और केंद्र की नकारात्मकता का तुलनात्मक ढांचा देखा जा सकता है।
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अभिसार शर्मा –
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सक्रियता: 6 वर्षों से यूट्यूब पर
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कुल वीडियो: 3,300+
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विषय: लगभग सभी वीडियो में भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना
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विश्लेषण: वीडियो के टाइटल ही बताते हैं कि कंटेंट एक खास नैरेटिव पर केंद्रित है।
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साक्षी जोशी –
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सक्रियता: 4 वर्षों से यूट्यूब पर
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कुल वीडियो: 2,700+
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विषय: सरकार विरोध, महिला अधिकार, संविधानवाद की व्याख्या
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विश्लेषण: हालांकि कुछ वीडियो सामाजिक विषयों पर हैं, फिर भी सरकार विरोध का स्वर प्रमुख है।
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📽️ क्या पत्रकारिता का मतलब सिर्फ विरोध है?
इन पांचों पत्रकारों का एक सामान्य तर्क यह है कि "पत्रकार का काम सत्ता से सवाल करना है"। यह बात सही है — लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का दर्पण होते हैं। लेकिन अगर दर्पण सिर्फ एक ही दिशा में मुड़ा हो, तो तस्वीर अधूरी होती है।
भारत में सिर्फ केंद्र की सरकार नहीं है।
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बंगाल में ममता बनर्जी
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दिल्ली में अरविंद केजरीवाल
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कर्नाटक, हिमाचल, झारखंड, तेलंगाना में कांग्रेस
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केरल में कम्युनिस्ट
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तमिलनाडु में DMK
इन राज्यों की सरकारों पर कोई आलोचना इन चैनलों पर देखने को नहीं मिलती। एक भी वीडियो इन राज्य सरकारों की विफलताओं, घोटालों, हिंसा या मुस्लिम तुष्टिकरण पर नहीं बनाया गया।
क्या इन सरकारों से कोई सवाल नहीं बनते? क्या पत्रकारिता का धर्म सिर्फ एक ही दिशा में चलना है?
🛠️ सरकार की उपलब्धियाँ – एक नजर
मोदी सरकार के 10 वर्षों में हुए कुछ बड़े कार्य:
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4 करोड़ से अधिक पीएम आवास योजना के तहत घर
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12 करोड़ उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन
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12 करोड़ शौचालय निर्माण (स्वच्छ भारत मिशन)
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50 करोड़ से अधिक जनधन खाते
3.74 लाख किलोमीटर से अधिक हाईवे निर्माण
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44 लाख करोड़ रुपये से अधिक DBT (Direct Benefit Transfer) के जरिए लाभार्थियों को राशि
इनमें से एक भी उपलब्धि पर इन 15,000 वीडियो में निष्पक्ष सराहना या समीक्षा नहीं की गई — यह एक बड़ा सवाल खड़ा करता है।
🔍 निष्कर्ष: विरोध जरूरी है, लेकिन संतुलन अनिवार्य है
इन पत्रकारों की यूट्यूब सफलता यह दिखाती है कि जनता सुनना चाहती है, देखना चाहती है — परंतु यदि एक ही प्रकार की सामग्री बार-बार दी जाए, तो वह पत्रकारिता नहीं बल्कि वैचारिक एक्टिविज़्म लगने लगता है।
लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना ज़रूरी है, लेकिन सभी सरकारों की।
प्रश्न पूछिए — मगर हर दिशा में।
सत्य दिखाइए — मगर संतुलित और पूरा ।
📌लेखक का संदेश:
पत्रकारिता अगर केवल विरोध का माध्यम बन जाए, तो वह जनता के विश्वास को तोड़ती है। पांच पत्रकारों का कैमरा लोकतंत्र में बहस को जीवंत रख सकता है, बशर्ते वह केवल एकपक्षीय विरोध का औज़ार न बन जाए। जनता का भरोसा निष्पक्षता से बनता है — ना कि पूर्वनियोजित नैरेटिव से।
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