चाँद और दीपक - सत्संग की साखियाँ

एक औरत रात को झोपड़ी में बैठकर एक छोटे से दीये को जला कर कोई शास्त्र पढ़ रही थी । 

आधी रात बीत गई। जब वह थक गई तो फूंक मार कर उसने दीया बुझा दिया। 

लेकिन, वह यह देख कर हैरान हो गई  कि जब तक दीया जल रहा था तब तक पूर्णिमा  का चांद बाहर खड़ा रहा । लेकिन,  जैसे ही दीया बुझ गया तो चांद की किरणें उस कमरे में फैल गई! 

वह औरत बहुत हैरान हुई यह देख कर कि एक छोटे से दीए ने इतने बड़े चांद को बाहर रोेक कर रखा था...!

इस लघु कहानी का तात्पर्य यह है कि इसी तरह हमने भी अपने जीवन में अहंकार के बहुत छोटे-छोटे दीए जला रखे हैं जिसके कारण सतगुरु का चांद बाहर ही खड़ा रह जाता है। 

जब तक वाणी को विश्राम नहीं दोगे तब तक मन शांत नहीं होगा। 

मन शांत होगा तभी ईश्वर की उपस्थिति महसूस होगी...! 


प्रस्तुतिकरण:

संपादकीय मंडली 

आत्मीयता पत्रिका

(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छायाचित्र)

  

Comments