बादशाह सिकंदर अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में जब बहुत सख्त बीमार हुआ तो बादशाह ने हकीमों से पूछा- क्या मैं ठीक हो सकता हूं?
उसके शाही हकीमों ने कहा- बादशाह सलामत! आपकी बिमारी लाइलाज हो गई है, और हमें कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।
बादशाह ने रूदन गले से कहा- मैं अपनी मां से मिलने ग्रीस जाना चाहता हूं। तुम मेरी आधी दौलत ले लो और मुझे कुछ दिनों के लिए ठीक कर दो।
जब हकीमों ने कोई जवाब नहीं दिया तो बादशाह सिकंदर ने कहा- मेरी सारी दौलत ले लो और मुझे कोई ऐसी दवा दे दो जिससे मेरे कुछ श्वास बढ़ जाएं।
हकीमों ने कहा- बादशाह सलामत! श्वास लेना और देना खुदावंद के हाथों में है।
और यह कह कर हकीमों ने अपने सिर नीचे कर लिए।
आखिर उस बिमारी के चलते बादशाह सिकंदर की मौत हो गई।
परमात्मा का कानून है कि जितने श्वास हमें उस सतपुरूष ने दिए हैं उससे हम एक श्वास भी ज्यादा नहीं ले सकते हैं। अब हम गहराई से सोचें कि दर्पण हमारे कितने श्वास और कितना समय व्यर्थ करता है। किसी की चुगली और निंदा और व्यर्थ की बातें हमारा कितना समय लेती हैं। कितने श्वास व्यर्थ होते हैं। रात-रात तक हम टीवी देखते हैं और फिर जब हम सोते हैं तो उठने का नाम नहीं लेते। एक श्वास जो त्रिलोकी से भी बड़ी कीमत रखता है, हम रोज-रोज कितने ही श्वासों को कूड़े के ढेर मे फेंक देते हैं।
कबीर जी कहते हैं-
"कहत हूं, कहे जात हूं, कहूं बजाऐ ढोल,
श्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल!
प्रस्तुतकर्ती: सुजाता कुमारी
(स्रोत: भारतीय लोकश्रुतियां)
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