धर्म क्या है?
धर्म की "परिभाषा"
क्या हैं?
मित्रगण,
अक्सर इस प्रश्न
में लोग विमूढ़
अवस्था में चले
जाते हैं और
लगभग मनगढ़ंत तर्क
देते हैं!
"मानवता"
शब्द को धर्म
बताते हैं। कुछ
लोग तो एक
व्यक्ति विशेष के "मत"
को धर्म बताते
हैं!
मित्रगण, आज के
बहुत सारे हिन्दू
ही "धर्म" का अर्थ
नहीं जानते हैं!
अज्ञानतावश वो धर्म,
मत, संप्रदाय और
मजहब या रिलिजन
को 'एक' ही
समझ लेते हैं!
उससे भी दुखद
तो ये है
कि धर्म को
ना जानने के
कारण बहुत सारे
लोग सभी धर्म
एक समान! जैसी
मान्यताओं का अनुसरण
करते है!तो
ऐसे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों
को समुचित उत्तर
देने हेतु सबसे
पहले हमें ये
समझना होगा!
कि अंततः "धर्म" है
क्या?
धर्म की परिभाषा
क्या है ?
मित्रगण, धर्म संस्कृत
भाषा का शब्द
है "धृ" धातु से
बना हैं जिसका
अर्थ होता है
"धारण करने वाला"।
इस तरह हम
कह सकते हैं
कि "धार्यते इति धर्म:"।
अर्थात जो धारण
किया जाये वह
धर्म हैं!दूसरे
शब्दों में लोक
परलोक के सुखों
की सिद्धि हेतु,
सर्वकल्याणकारी गुणों और कर्मों
का धारण व
अनुसरण करना ही
धर्म हैं!अब
अगर हम इतनी
तकनीकी बातों को छोड़
कर सीधे-सीधे
कहें तो हम
यह भी कह
सकते हैं कि
मनुष्य जीवन को
उच्च व पवित्र
बनाने वाली ज्ञानानुकुल
जो शुद्ध सार्वजनिक
मर्यादा पद्यति हैं वही
"धर्म" है!
शंकराचार्य
जी के मीमांसा
दर्शन के दूसरे
सूत्र में भी
धर्म के लक्षण
का विवरण हैं!
जो बताता है कि
लोक परलोक के
सुखों की सिद्धि
के हेतु गुणों
और कर्मों में
प्रवृति की प्रेरणा,
धर्म का लक्षण
कहलाता हैं!साथ
ही वैदिक साहित्य
में 'धर्म' वस्तु
के स्वाभाविक गुण
तथा कर्तव्यों के
अर्थों में भी
आया हैं जैसे
कि जलाना और
प्रकाश करना, अग्नि का
'धर्म' है!
प्रजा का पालन
और रक्षण राजा
का 'धर्म' हैं!
उसी प्रकार मनु स्मृति
में 'धर्म की
परिभाषा' देते हुए
कहा गया है
कि
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं
इन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो दशकं धर्म
लक्षणं।। (6/9 मनुस्मृति)
अर्थात धैर्य, क्षमा, मन
को प्राकृतिक प्रलोभनों
में फँसने से
रोकना, चोरी त्याग,
शौच, इन्द्रिय निग्रह,
बुद्धि अथवा ज्ञान,
विद्या, सत्य और
अक्रोध, धर्म के
दस लक्षण हैं!
दूसरे स्थान पर कहा
है,
"आचार:परमो धर्मः।"
(1/108 मनुस्मृति)
अर्थात सदाचरण परम धर्म
हैं!
ध्यान दीजिये, यहां पर
"आचार: परमो धर्म"
को ही कुछ
स्वार्थी तत्वों ने बदल
कर "अहिंसा परमो धर्मः"
बना दिया है!
इसी तरह महाभारत
में भी धर्म
को समझाते हुए
लिखा गया हैं
कि
"धारणाद
धर्ममित्याहु: धर्मो धार्यते प्रजा:।"
अर्थात् जो धारण
किया जाये और
जिसे प्रजा ने
धारण किया हुआ
है, वह धर्म
हैं!
सिर्फ इतना ही
नहीं वैशेषिक दर्शन
के कर्ता महामुनि
कणाद ने, धर्म
का लक्षण बताते
हुए कहा है
कि
"यतोअभयुद्य
निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:।"
अर्थात् जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति)
और निश्रेयस (मोक्ष)
की सिद्धि होती
है, वह धर्म
हैं!
मित्रगण, ये तो
हो गई धर्म
की परिभाषा!
अब मजहब और
रिलिजन का मतलब
समझिये!
मित्रजन, मजहब या
रिलिजन धर्म के
बिलकुल ही विपरीत
है!
मजहब या रिलिजन
किसी एक पीर-पैगम्बर या मनगढ़ंत
सर्वोपरि आत्मा, फरिश्ता आदि
के द्वारा स्थापित
और उसी के
सिद्धांतों की मान्यता
को लेकर बनाए
जाते हैं!
जिसका लक्ष्य जनकल्याण नहीं,
अपितु रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि
के विपरीत किये
जाने वाले पाखंडों
आदि किसी भी
प्रकार का प्रपंच
कर, अपने मजहब
में लोगों की
संख्या बढ़ाना होता है
ताकि वे उस
समुदाय के अपने
निहित स्वार्थ के
अनुकूल उनको भेड़ों
की तरह हांक
सकें!
इसी तरह 'सम्प्रदाय'
को भी धर्म
की संज्ञा देना
उचित नहीं है
क्योंकि सम्प्रदाय, रिलिजन या
मज़हब के अंदर
के भाग होते
हैं सिर्फ उनकी
मान्यताओं और दर्शन
में अंतर होता
है!
मित्रजन अंत में
सिर्फ इतना ही
कहा जा सकता
है कि एक
"सनातन धर्म" ही उपरोक्त
"धर्म" की परिभाषा
पर खरा उतरता
है। जो हमें
धैर्य, क्षमा, मन को
प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने
से रोकना, लोभ
का त्याग, शौच,
इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा
ज्ञान, विद्या, सत्य और
अक्रोध मोक्ष आदि के
बारे में बताता
है!
नाकि ये सिखाता
है कि किसी
को धर्मपरिवर्तन कैसे
करवाना है अथवा
जेहाद कैसे चलाना
है!
इसीलिए मित्रगण, सत्य सनातन
को जाने क्योंकि
सत्य ही वो
प्रकाश है जो
अधमी सेक्यूलरों द्वारा
फैलाये प्रपंच रूपी इस
अन्धकार को दूर
कर, हमारे "सनातन
धर्म" के अस्तित्व
की रक्षा में
सहायक होगा!
हमेशा एक बात
याद रखें कि
अन्याय और पाप
को सहने वाला
भी उतना ही
दोषी होता है
जितना अन्याय और
पाप करने वाला!
इसीलिए हर बात
की सच्चाई को
जानो, अपने अधिकारों
के लिए लड़ना
सीखो और दहाड़ो
हिन्दुओं!
हम सनातनी हैं! हम
हिन्दू हैं!
।।जय जय श्री
राम ।।
।।हर हर
महादेव।।
प्रस्तुतिकरण-पं.ऋषि
राज मिश्रा
(ज्योतिष आचार्य एवम वास्तु
विशेषज्ञ)
गुरुग्राम
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