दो दोस्त राम और श्याम एक हलवाई की दुकान पर मिल गए। राम ने कहा,"आज मां का श्राद्ध है। मां को लड्डू बहुत पसंद हैं, इसलिए लड्डू लेने आया हूं।"
श्याम आश्चर्य में पड़ गया कि अभी पांच मिनट पहले ही तो मैं इसकी मां से सब्जी मंडी में मिला था। वो कुछ और कहता उससे पहले ही खुद राम की मां हाथ में झोला लिए वहां आ पहुंची।
श्याम ने राम की पीठ पर मारते हुए कहा,"भले आदमी! ये क्या मजाक है? मांजी तो यह रहीं तेरे पास!"
राम अपनी मां के दोनों कंधों पर हाथ रखकर हंसकर बोला,"भाई! बात यूं है कि मृत्यु के बाद गाय और कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि मां की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी ही तृप्त करूं!
मैं मानता हूं कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही सच्चा श्राद्ध है।
मेरे भाई! मां को मिठाई, सफेद जामुन और आम आदि बहुत पसंद हैं और मैं वो सब उन्हें खिलाता हूं।
श्रद्धालु मंदिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं।
मैं मंदिर नहीं जाता हूं। पर मां के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती लगा देता हूं।
सुबह जब मां गीता पढ़ने बैठती है तो मां का चश्मा साफ करके देता हूं।
मुझे लगता है कि ईश्वर की फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य मां का चश्मा साफ करके मिलता है! "
तात्पर्य:
यह बात थोड़ी चुभने जैसी है पर बिल्कुल खरी है।
हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं। पंडितों और सगे-संबंधियों को खीर-पूरी खिलाते हैं।
रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते हैं। पर, याद रखिए कि गाय और कौए को खिलाया हुआ ऊपर पहुंचता है या नहीं, यह किसे पता?
अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नहीं हुई है!
माता-पिता को जीते-जी ही सारे सुख देना ही सच्चा और वास्तविक श्राद्ध है!
प्रस्तुतिकर्ति:
सुश्री सुजाता कुमारी, सर्वोपरि संपादिका एवम् प्रभारी, सम्पादकीय इकाई (आत्मीयता पत्रिका)
X - @sujatakumarika
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य, कबीर सागर एवं अन्य सत्साहित्य; इंटरनेट, सोशल मीडिया, व्हाट्सएप्प, एक्स पर मुफ़्त में उपलब्ध छायाचित्र, चलचित्रिका और अन्य सामग्री)
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