एक राजा अपने घोड़े पर सवार जंगल में अकेला जा रहा था। जब वो डाकुओं की बस्ती के पास से निकला, तब एक डाकू के दरवाजे पर पिंजरे में बंद तोता पुकार उठा- "दौड़ो! पकड़ो! मार डालो इसे! इसका घोड़ा छीन लो! इसके गहने छीन लो!"
राजा ने समझ लिया कि वो डाकुओं की बस्ती में आ गया है। उसने घोड़े को पूरे वेग से दौड़ा दिया।
डाकुओं ने पीछा किया। परंतु, राजा का उत्तम घोड़ा कुछ ही क्षणों में दूर निकल गया।
हताश होकर डाकुओं ने पीछा करना छोड़ दिया।
भागते-भागते आगे जाकर राजा को एक महात्मा जी की कुटिया दिखी।
जब राजा उस कुटिया के सामने से निकला, तब पिंजरे में बैठा तोता उसे देखते ही बोला- "आइए राजन! आपका स्वागत है! अरे, अतिथि पधारे हैं! अर्घ्य (जल, फूल और फल आदि सामग्री जो पूजा में चढ़ाई जाती है) लाओ! आसन लाओ!"
तोते की बात को सुनकर महात्मा जी तुरंत कुटिया से बाहर आ गए और उन्होंने राजा का स्वागत किया।
महात्मा जी का आतिथ्य और सत्कार स्वीकार करने के बाद राजा ने उनसे पूछा- "महात्मा जी, एक ही जाति के पक्षियों के स्वभाव में इतना अंतर क्यों है?"
महात्मा जी के जवाब देने से पहले ही वो तोता बोल पड़ा- "राजन! हम दोनों एक ही माता-पिता की संतान हैं। किंतु, उसे डाकू ले गए और मुझे ये महात्मा जी ले आए।
वो हिंसक डाकुओं की बातें सुनता है और मैं महात्मा जी के वचन सुनता हूं।
आपने स्वयं देख ही लिया है कि किस प्रकार संंगत के कारण प्राणियों में गुण या दोष आ जाते हैं!"
इस कहानी का तात्पर्य यह है कि हमारे शास्त्रों में यह सत्य ही कहा गया है- "संसर्गजा दोष, गुणा भवंति।" अर्थात - जैसा संग, वैसा रंग।
बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे ही उस पर माता-पिता और आस-पड़ोस के वातावरण और बाल मित्रों का उसके जीवन पर प्रभाव पड़ने लगता है।
इसीलिए माता-पिता को यह ध्यान देना चाहिए। और माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालें और उन्हें बुरी संगत से दूर रखें।
प्रस्तुतिकर्ति:
सुजाता कुमारी,
सर्वोपरि संपादिका,
आत्मीयता पत्रिका
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)
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