शूरता शूरवीर शेर की - हैरतंगेज सच्ची दास्तां

हरियाणा की पावन भूमि पुरातन काल से ही वीरों एवम् वीरांगनाओं की सौभाग्यशाली जननी रही है. इस तपोभूमि ने गर्व से अनगिनत शूरवीर भारत मां की सेवा में समर्पित किये हैं. महाभारत का साक्षी रणस्थल कुरुक्षेत्र भी यहीं पडोसी राज्य राजस्थान की मिट्टी के कण कण में राजपूतों की वीर गाथाओं की महक आज तक आ रही है. 

यदि ऐसे में जिस बालक की माताश्री राजस्थान की वीरांगना राजपूतानी हो, पिताश्री हरियाणा में जन्मा जाँबाज सैन्य अधिकारी हो और जो भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध राजा भोज एवं वीर विक्रमादित्य जैसे धारानगरी व उज्जयिनी के न्यायप्रिय – निर्भीक कुशल एवं शूरवीर परमार (पँवार) राजाओं और सम्राटों का वंशज हो, जिसने मिलिट्री स्कूल चायल में सर्वोतम सैनिक शिक्षण प्राप्त किया हो, कॉलेज के दिनों में एन. सी. सी. सीनियर डिव्हीजन में ज्यूनियर अंडर ऑफिसर का पद सुशोभित किया हो व ‘सी’ सर्टिफिकेट की परीक्षा उत्तम श्रेणी में उत्तीर्ण की हो, वह बालक बड़ा होने पर शूरता के स्वर्णिम इतिहास में एक और नया सुनहरा अध्याय जोड़ दे तो किसी को भी कोई विशेष आश्चर्य नहीं होना चाहिये. 

हरियाणा के पुण्य ग्राम कलिंगा में सैन्य अधिकारी श्री हरि सिंह परमार (पँवार) की धर्मपत्नी राजकँवर की गौरवपूर्ण कोख से २५ अक्तुबर १९६६ की प्रातः साढे पाँच बजे जन्मे इस बालक शेर सिंह ने आगे चलकर मात्र चौबीस वर्ष की युवा अवस्था में अपने नाम के अनुरूप सिंह गर्जना के साथ जनवरी सन १९९१ ईसवी में शूरता का एक नया अनूठा कीर्ति मान स्थापित कर दिया.

हुआ यूं कि भारतीय सीमाशुल्क एवं केंद्रीय उत्पाद शुल्क निरीक्षक के पद पर पश्चिमी भारतीय समुद्र तट पर स्थित हर्णे सीमा शुल्क चौकी में ड्यूटी पर तैनात ठाकुर शेर सिंह परमार के वरिष्ठ सहयोगी निरीक्षक श्री राजकुमार लाल को सूचना मिली कि तस्करों का एक गिरोह अवैध रूप में उनके डयूटी क्षेत्र में भावी तीन दिनों के अंदर अंदर ही चाँदी एवं तस्करी का अन्य माल समुद्री रास्ते से ला कर उतार कर बम्बई (मुंबई) ले जाने की ताक में है. 

फलस्वरूप उन्होंने अपने वरिष्ठ सहयोगी निरीक्षक श्री राजकुमार लाल के साथ मिलकर इस तस्करी के माल को मौके पर तुरंत पकड़ने हेतु अति गोपनीय रणनीति तैयार की जिस के अनुसार उन्हें स्थल पर एवं श्री राजकुमार लाल को समुद्र में मोर्चा संभालना था.

परंतु, श्री राजकुमार लाल को अकस्मात् ही किसी सरकारी कार्य से हर्णे से बहुत दूर रत्नागिरी शहर जाना पड़ गया. अतः उन दोनों की पूर्व निर्धारित रणनीति फेल हो गई. 

अब सारी जिम्मेदारी ठाकुर शेर सिहँ परमार के ही कंधों पर आ पड़ी. मुखबिर से दो दिन बीत जाने के पश्चात भी कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई. तीसरा दिन भी रात के बारह बजे की ओर दौड़ रहा था. तब भी मुखबिर की ओर से कोई सूचना नहीं. 

वह अत्यधिक तनाव में थे कि यदि आज रात भी कोई सूचना नहीं मिलती है तो इसका यह अर्थ होगा की तस्कर उन के कार्यक्षेत्र में तस्करी का माल उतारकर उसे बंबई (मुंबई) पहुँचाने में सफल हो गये हैं.

कोंकण-पट्टी तस्करी के लिए संवेदनशील एवं कुख्यात क्षेत्रों की सूची में सम्मिलित थी. अतः स्टॉफ को रात दिन चौकस रहना पड़ता था. 

स्टॉफ की कमी होने के कारण कार्यरत स्टॉफ को ही सतत दिन रात डयूटी देनी पडती थी. प्रायः ऐसी स्थिति में दिन की भागमभाग एवं डयूटी से थके हारे सिपाही रात की पाली में सोते सोते डयूटी किया करते थे. 

हेमंत ऋतु में वैसे भी गरम गरम बिस्तर में दुबकने का लोभ संवरण करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य ही होता है. कहीं ऐसा न हो कि हेमंत ऋतु की शरद देवी के आगे नतमस्तक हो कर सिपाही मोरे ऑफिस का दरवाजा बंद कर के सो जाये और गुप्तचर से आने वाली सूचना टेलीफोन की टर्न टर्न करती सिसकियों में घुट घुटकर दम तोड़ दे. शेर को पूर्णरूपेण ज्ञात था कि सिपाही मोरे के निद्रा की बाँहों में समाने की पूरी पूरी संभावना थी. 

शेर को मालूम था कि बाहर बह रही मस्त मस्त हेमंत ऋतु की लहरें सिपाही मोरे को थर्राएंगी और ठिठुरता हुआ सिपाही मोरे एक पल भी झपकी नहीं ले पाएगा. नींद की बात तो सौ कोस दूर रही. परिणामस्वरूप गुप्तचर से अपेक्षित तस्करी की गुप्त सूचना मोरे के माध्यम से उन तक पहुँच जाएगी. 

अतः शेर ने हर्णे कस्टम्स ऑफिस के अंदर रखी उस मेज को जिस पर टेलीफोन रखा था खिडकी के समीप सरकवा दिया. खिड़की को खुला छोड़ दिया. शेर ने कस्टम्स ऑफिस के दरवाजे को बाहर से ताला लगा दिया. शेर ने सिपाही मोरे को बाहर रखी कुर्सी पे बैठकर ड्यूटी करने का आदेश दिया. साथ ही सिपाही मोरे को बताया की सिपाही मोरे खिडकी में से हाथ अंदर डाल कर मेज पे रखे टेलीफोन का रिसीव्हर उठा कर परिस्थितिनुसार संदेश प्राप्त करे या संदेश भेजे.

अपेक्षित तस्करी संबंधी गुप्त सूचना की अति संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए शेर ने निर्णय लिया की सिपाही मोरे तक को न बताया जाये कि अपेक्षित आवक फोन कॉल किस संबंध में होगी. 

अतः शेर ने सिपाही मोरे से मात्र इतना ही कहा “मोरे, कहीं से भी फोन आता है तो मुझे तुरंत बताना.” 

मोरे ने कहा, “दापोली से सुपरिटेण्डेट साहब का फोन आया तो भी साहब ?” 

“हाँ ! तो भी मुझे आकर तुरंत बताना.” वह यह कह कर अपनी पिछले तीन दिनों के जागरण से उत्पन्न थकान को मिटाने व थोडी देर सुस्ताने हेतु अपने कमरे पर चले गये.

उन्हें लगभग रात के साढ़े बारह बजे सिपाही मोरे ने आ कर सूचना दी कि परमार साहब फोन आया है कि सावनी आंजर्ले में तस्कर समुद्री जहाज से अवैध माल उतार रहे हैं. 

ठाकुर शेर सिंह परमार ने तुरंत कारवाई की. उन्हें मुखबिर द्वारा प्रदत्त गोपनीय सूचना में इतना अधिक दृढ़ विश्वास था और उन्हें मौके की नजाकत का अंदाजा इतनी अच्छी तरह लग गया था कि वह कुर्ता पजामा चप्पलों ही में सिपाही मोरे के साथ ऑटोरिक्शा से हर्णे चौकी की ओर निकल पडे. 

जाने से पहले वह एक हवलदार हेतु निर्देश छोड़ गये कि वह हर्णे चौकी को आ कर संभाले. तत्पश्चात वह हथियार लेकर ऑटोरिक्शा से ही पान आंजर्ले खाडी की ओर निकल पडे जो लगभग चार किलोमीटर दूर स्थित थी. 

उन्होंने तभी अचानक ऑटोरिक्शा को विपरीत दिशा में दापोली की और दौड़ता पाया. उन्होंने तुरंत ऑटोरिक्शा थमवाया. सिपाही मोरे ने पूछने पर कहा “साहब, दापोली जाकर बडे साहब को सूचना देते हैं. हम दो लोग स्मगलरों से कैसे लड़ेंगे?” 

सिपाही अपनी जगह सही था. परंतु, ऐसा करने का यह अर्थ था कि तस्कर उनके दापोली से वापिस आने तक माल सहित चंपत हो जाते. 

तीक्ष्णबुद्धि ठाकुर शेर सिंह परमार ने गरज कर ऑटोरिक्शा को वापिस मुडवाया और पाज – आंजर्ले खाडी पर पहुँच कर वहाँ तैनात सिपाही आलवे को दापोली उसी वाहन से जा कर वरिष्ठों को सूचित करने का निर्देश दिया. 

सिपाही मोरे भी दापोली जाना चाहता था. परमार साहब ने उस से कहा,“तुम दोनों में से रायफल ट्रेनिंग किस की हुई है?” सिपाही मोरे ने 'हाँ' की, तब उन्होंने कहा,“देखो, आलवे की रायफल ट्रेनिंग नहीं हुई है. मोरे, तुम मेरे साथ चलो. हाँ, अगर तुम नहीं आना चाहते हो तो ठीक है. मैं अकेला ही खाडी पार कर के जाऊँगा और तस्करी का माल पकडूंगा. मुझे मराठी नहीं आती है. तुम होडी वाले को मराठी में बोल कर जगा दो और उसे मुझे उस पार छोड़ने के लिए कहो.” 

उनकी जिद एवं दृढ़ निश्चय देखकर सिपाही मोरे का हौसला बँधा और वह उनके साथ खाडी पार कर के वहाँ से लगभग साढ़े तीन चार किलोमीटर दौडता दौडता सावनी आँजर्ले पहुँचा. 

दौड़ते दौड़ते सिपाही मोरे ने कहा, “ओ, साहेब. फायरिंग ची जबाबदारी कोणी ही घेत नाहीत.” 

शेर ने दौड़ते दौड़ते हुए ही अपने सिपाही मोरे से कहा,“मोरे, तुम घबराना नहीं. फायरिंग की जिम्मेदारी मैं लूँगा. तुम्हें कुछ भी नहीं होगा. ऊपर के अफसरों को मैं जवाब दूंगा के तुम ने फायरिंग मेरे कहने पर की. लेकिन, पहले फायर हवा में करना, मेरे कहने के बाद ही फायर खोलना”.

सावनी – आंजर्ले पहुँच कर सिपाही मोरे ने घबरा कर रायफल के ट्रिगर में अंगुलियाँ कस दी यह कहते हुए,“ओ साहेब. खाली झुका. दोघाच्या जीवाला धोका आहे.” सिपाही मोरे को नर्वस देख शेर ने कहा “मोरे, पहला फायर हवा में करो. बाद में सामने करना”.

ठाकुर शेर सिंह परमार के निर्देशानुसार मोरे ने “प्वाइंट थ्री नॉट थ्री” राईफल से पहला फायर हवा में ही किया. तत्पश्चात उन्होंने मोरे से हवा में फायरिंग इस तिरछे ढंग से ऊपर की ओर करवाई कि यदि कोई व्यक्ति वहाँ हो तो वह गोली लगने से न मरे क्योंकि वे नियमानुसार केवल घुटनों के नीचे तक ही तस्करों को गोली मार सकते थे.

शुक्ल पक्ष के चंद्र के पूरे यौवन से उन्मत होने के उपरांत भी सामने की पहाड़ी की परछाई के चलते कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता था. सो, वह किसी तस्कर को त्रुटिवश भी मार डालने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते थे. 

दाई तरफ भी पहाड़ी थी. बाई ओर समन्दर था. उन्हें आभास हुआ कि बीस-तीस लोग समंदर के किनारे कुछ ला रहे हैं वहाँ खडे टेम्पो तक.

शेर चाहते थे कि कुछ देर और रूका जाय व बाद में ही फायर खोला जाए. ताकि तस्कर पूरी चाँदी उतार लें और तदनंतर तस्करों को पूरी चाँदी के साथ धर दबोचा जाए. परंतु, सिपाही मोरे द्वारा घबराहट में समय के पूर्व किए गए फायर के चलते तस्करों का चाँदी से भरा जहाज समुद्र का सीना चिरता भाग निकला.

शेर ने समझ लिया कि मोरे द्वारा असमय खोले गये फायर से उन दोनों के प्राणों को खतरा था. 

ठाकुर शेर सिंह परमार ने भांप लिया कि तस्करों को जल्द ही उनके मात्र दो ही होने का पता चला जाएगा. तस्कर उन पर ही टूट पडेंगे. साथ ही माल सहित नौ दो ग्यारह हो जायेंगे. 

सो, उन्होंने एक कुशल सेना नायक की भाँति स्थिति की संवेदनशीलता और सिपाही मोरे की घबराहट को समझते हुए सिपाही मोरे से विभिन्न कोणों से, विभिन्न दिशाओं में, विभिन्न स्थानों से फायरिंग करवाई. 

उन्होंने अपनी “प्वाइंट र्थी टू” रिवाल्वर से पहले हवा में फायर किया. तत्पश्चात वहाँ खडे टॅम्पोट्रक व हीरोहोंडा मोटर सायकल के टायरों को फायरिंग से पंक्चर कर दिया. 

वह स्वयं चिल्ला चिल्ला कर वहाँ वास्तव में अनुपस्थित अपने वरिष्ठों, कनिष्ठों एवं सहकर्मियों का नाम ले लेकर ऐसा आभास प्रकट करने लगे मानो तस्करों का सामना कस्टम्स अधिकारियों की बहुत बडी टुकडी से हो गया है. 

शेर ने चिल्ला चिल्ला कर कहा, “अपनी माँ का दूध पिया है तो स्मगलरों सामने आओ. तुम सब घिर चुके हो. आत्मसमर्पण कर दो. तुम अब बच नहीं सकते...अजीत कुमार साहब! आप इधर से आइए. थापा तुम उस साइड से पहुँचों... कारखानीस साहब! लाड साहब! हमने माल पकड लिया है...” 

अजीत कुमार व कारखानीस और लाड उनके वरिष्ठ अधिकारियों के नाम थे. थापा उनके सहकर्मी निरीक्षक का नाम था.

इस सारी भागमभाग में तस्कर चाँदी से लदा टेम्पो वहीं पर छोड़कर अपने सिर पर पाँव रख कर भाग निकले कोई समंदर के रास्ते तो कोई स्थल के रास्ते! 

ठाकुर शेर सिंह परमार ने समुद्र तट पर जगह जगह जाकर टार्च से समन्दर की ओर प्रकाश फेंक कर ऐसा मायाजाल प्रकट किया मानो ४० – ५० कस्टम्स अधिकारी वहाँ मौजूद हों. 

उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी. उन्होंने अद्भुत तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता, अटूट धैर्य, साहस, उपाय कौशल्य, सूझबूझ और सर्वोत्कृष्ट नेतृत्व का परिचय दिया.

घड़ी की सुईयां साढ़े तीन बजे का समय बताकर उद्घोषणा कर रही थी कि आधी रात बीतने के बाद तीस जनवरी १९९१ का दिन आरंभ हो चुका है. 

तभी उन्हें दाईं ओर की पहाड़ी पर मनुष्यों के बोलने की अस्पष्ट आवाजें सुनाई दी. सिपाही मोरे ने उधर ही फायर कर दिया. 

ऊपर से आवाज आई “परमार साहब, मैं आलवे हूँ”. 

फायर बंद कर दिया गया. आलवे नीचे उतर कर ऑटोरिक्शा ड्रायव्हर के साथ आया और उसने बताया कि उन लोगों ने वरिष्ठों को इस तस्करी प्रकरण की पूरी सूचना दे दी है. 

साथ ही यह भी बताया कि वे लोग पहाड़ी के पिछले हिस्से से चढ़ कर इसलिए आये क्योंकि घूम कर आने में बहुत समय चला जाता. सौभाग्यवश, उन दोनों के प्राण बच गये.

ठाकूर शेर सिंह परमार ने ऑटोरिक्शा ड्रायव्हर को वहाँ से भेज दिया इस सख्त निर्देश के साथ कि वह गाँव वालों को इस संबंध में कुछ भी नहीं बताएगा क्योंकि खतरा था कि असामाजिक तत्व आ कर तस्करी के इधर उधर बिखरे माल को उठाकर वहाँ से ले जाते व अफरा तफरी मचा देते.

किन्हीं कारणों से वरिष्ठ अफसर दापोली से सहायता हेतु केवल सुबह सात बजे ही पहुँच सके. 

भोर की पहली किरण बालू पर पड़ते ही दृश्य एकदम स्पष्ट हो गया. 

ठाकूर शेर सिंह परमार की शूरवीरता व सूझबूझ के चलते लगभग साढे तीन टन वजन ही ११३ चाँदी की गनी बैगों में बँधी सिल्लियाँ, एक टेम्पोट्रक, हीरोहोंडा मोटर सायकल एवं कुछ अन्य फुटकर सामग्री सहित ढाई करोड रूपये की कीमत वाला तस्करी का माल बरामदी हेतु निमंत्रण दे रहा था. यह कीमत जनवरी १९९१ में आँकी गई कीमत है जो वर्ष २००६* में करीब १० करोड़ रूपये के आसपास बैठती है !

तलवार और कलम दोनों के ही धनी व सहकर्मियों में ‘टायगर सिंग’ के नाम से मशहूर वीर ठाकूर शेर सिंह परमार को साहित्यिक क्षेत्र में उपलब्धियों के हेतु अति प्रतिष्ठित डॉक्टर मणिभाई देसाई राष्ट्रसेवा पुरस्कार से वर्ष २००० ई. में सम्मानित किया जा चुका है.

श्री जसराज सिंह चौहान पटौदी, गुडगाँव, हरियाणा

(सौजन्य: श्री जसराज सिंह चौहान पटौदी, गुडगाँव, हरियाणा के वर्ष २००६ में प्रकाशित लेख से संशोधनों सहित साभार उदधृत) 

*टिप्पणी: यह कीमत जनवरी १९९१ में आँकी गई कीमत है जो वर्ष २०२३* में करीब ६० करोड़ रूपये के आसपास बैठती है !


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