तीन दोस्त लंगर में भोजन कर रहे थे। उनमें से पहला बोला- काश! हम भी ऐसे ही लंगर कर पाते।
दूसरा बोला- हां भाई! तनख्वाह तो आने से पहले ही जाने के रास्ते बना लेती है।
तीसरा बोला- खर्चे इतने सारे होते हैं, तो कहां से करें लंगर?
उन तीनों दोस्तों के पास बैठे एक महात्मा जी भी लंगर का आनंद ले रहे थे और वो उनकी बातें भी सुन रहे थे। महात्मा जी उन तीनों से बोले- बेटा! लंगर करने के लिए धन नहीं, केवल अच्छे मन की ही जरूरत होती है।
वे तीनों दोस्त आश्चर्यचकित होकर महात्मा जी की ओर देखने लगे। महात्मा जी ने उन सभी की उत्सुकता को देखकर हंसते हुए कहा- बच्चों! तुम रोज पांच-दस ग्राम आटा लो और उसे चीटियों के स्थान पर खाने के लिए रख दो। देखना, अनेकों चींटियां और मकौड़े उसे खुश होकर खाएंगे। बस, हो गया गुरु का लंगर।
चावल और दाल के कुछ दाने लो। उसे अपने घर की छत पर बिखेर दो और एक कटोरे में पानी भर कर रख दो, चिड़ियां और कबूतर आकर खाएंगे। बस, हो गया गुरु का लंगर।
गाय और कुत्ते को रोज एक-एक रोटी खिलाओ और अपने घर के बाहर उनके पीने के लिए पानी भर कर रख दो। बस, हो गया गुरु का लंगर।
परमात्मा ने सभी के लिए अन्न का प्रबंध किया है। ये जो तुम और मैं यहां बैठकर पूड़ी और सब्जी का आनंद ले रहे हैं ना, इस अन्न पर परमात्मा ने हमारा नाम लिखा हुआ है।
बच्चों! तुम भी जीव-जंतुओं के भोजन का प्रबंध करने के लिए जो भी व्यवस्था करोगे, वो भी उस परमात्मा की इच्छा से ही होगा। यही तो है लंगर।
महात्मा जी आगे बोले- बच्चों! जाने कौन कहां से आ रहा है और कौन कहां जा रहा है, ये किसी को भी पता नहीं होता है, और ना ही किसको कहां से क्या मिलेगा या नहीं मिलेगा, यह भी किसी को पता होता है। बस, सब उस परमात्मा की माया है।
तीनों दोस्तों के चेहरे पर एक अच्छी और सुकून देने वाली खुशी छा गई। उन्हें लंगर खाने के साथ-साथ, लंगर करने का रास्ता भी मिल चुका था।
----- तात्पर्य ------
परमात्मा के बनाए हुए प्रत्येक जीव-जंतुओं को भोजन देने के कार्य को जनकल्याण भाव से निस्वार्थ करने का संस्कार हमें बाल्यकाल से ही मिल जाता है। बाल्यकाल से ही हमें गुरुघर में सेवा और सिमरन की शिक्षा मिलती है।
गर्व है हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर, जो हमें सदैव देश और मानवता की सेवा करने के लिए प्रेरित करती है और सरबत (सभी) का भला मांगती है।
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