समय चला,
पर कैसे चला,
पता ही नहीं चला,
ज़िन्दगी की आपाधापी में,
कब निकली
उम्र सखियों मेरी,
पता ही नहीं चला ...
कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे
कब कंधे तक आ गए,
पता ही नहीं चला,
किराये के घर से
शुरू हुआ था सफर मेरा,
कब अपने घर तक आ गई,
पता ही नहीं चला...
साइकिल के पैडल मारते हुए हाँफती थी उस वक़्त,
कब से मैं कारों में घूमने लगी,
पता ही नहीं चला...
कभी थी जिम्मेदारी मैं माँ बाप की,
कब बच्चों के लिए हुई जिम्मेदार मैं,
पता ही नहीं चला...
एक दौर था जब दिन में भी
बेखबर सो जाती थी,
कब रातों की उड़ गई नींद,
पता ही नहीं चला,
जिन काली घनी जुल्फों पर
इतराती थी कभी मैं,
कब सफेद होना शुरू हो गई
पता ही नहीं चला...
दर दर भटकी थी
नौकरी की खातिर ,
कब रिटायर हो गई,
समय का
पता ही नहीं चला,
बच्चों के लिए कमाने बचाने में
इतनी मशगूल हुई मैं,
कब बच्चे मुझ से हुए दूर,
पता ही नहीं चला...
भरे पूरे परिवार से सीना चौड़ा रखती थी मैं,
अपने भाई बहनों बच्चों पर गुमान था,
उन सब का साथ छूट गया ,
कब परिवार हम दो
शौहर और मुझ पर सिमट गया ,
पता ही नहीं चला,
अब सोच रही थी
अपने लिए भी कुछ करूँ,
पर बेवफा जिस्म ने साथ
देना कब बंद कर दिया ,
पता ही नहीं चला...!!!
(स्रोत: लोकप्रिय भारतीय जन काव्य)
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