कवि एक: रंग अनेक (सलिल सरोज)

१. मुलाक़ात

तुम्हारी मुलाक़ात का यह असर हुआ है

जो वीरान जंगल था, आज शहर हुआ है! 

यह  कैसी आग लगाई  हमारे रकीबों ने
हम इधर बैठे हैं और धुआँ उधर हुआ है!

कैसे परदेशी पंछी लौटे अपने घरों  को  
यहाँ आधी रात बीती तो दोपहर हुआ है!

सच की नब्ज़ टटोलना छोड़ चुके हैं हम
जबसे अखबार ख़बरों से बेखबर हुआ है!  

माँ के  रहते  हुए  भाइयों में बँटवारा देख  
जाते-जागते घर में मौत का मंज़र हुआ है!

काम किसी का हो, नाम अपना होना चाहिए
ज़माने में अब यह भी एक नया हुनर हुआ है!  

२. अपनी आदत पर नज़र रखिए
आप खुद से ही अपनी हालत पर नज़र रखिए,

मुक़दमा किया है तो अदालत पर नज़र रखिए!

और भी हैं घर में माँ-बाप की सलामती के लिए,
आप तो समझदार हैं,सो दौलत पर नज़र रखिए!  

जिसे चुना है आपने, आपका दुश्मन न हो जाए,
दिन-रात उसकी बढ़ती ताकत पर नज़र रखिए!

जो गुज़र जाएँगे वो कभी प वापस नहीं आएँगे,
जितनी भी मिली है हर मोहलत पर नज़र रखिए!

चाँद को चाहने से चाँद नहीं मिल जाया करते हैं,
किसी को चाहने से पहले चाहत पर नज़र रखिए!  

पता नहीं चलता कब अर्श से फर्श पे ले आती है,
चाहे जैसी भी हों ,अपनी आदत पर नज़र रखिए!

३. ढूँढिए

अपना गुनाह छुपाने को कोई गिरेबाँ ढूँढिए 
जो कुछ भी ना कह सके, वैसी जुबाँ ढूँढिए!

हमें बुरी  आदत  है सच  को  सच कह देने की
जो सच को झूठ कह सके, कोई मेहरबाँ ढूँढिए!

चमन  में  गुल   खिला   करते  हैं  हर  रंगो - बू  के
जो गुलशन को मसान कर सके वही बागबाँ ढूँढिए!

ये  लोकशाही है , यहाँ सबकी सुननी पड़ती है
मुर्दों पर राज़ करना हो तो फिर बियाबाँ ढूँढिए!

आपके ये आँसू भी आपके दाग धो नहीं पाएँगे
नदामत*  की  खातिर आब - ए - रबाँ*  ढूँढिए!

फसाद से कभी अमन  की खेती नहीं की जाती है
अपनी हस्ती गर बचानी हो तो नया उनवाँ* ढूँढिए!

*नदामत- पश्चाताप
*आब-ए-रबा- बहता हुआ पानी
*उनवाँ- प्रकार


४. वो बुढ़िया
वो बुढ़िया कल भी अकेली थी
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है!

चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ कर पता चलता है
उसने कितने सदियों की पीड़ा झेली है!

पति छोड़ कर बुद्ध हो गया भरी जवानी में
आँसुओं की लरी ही केवल  एक सहेली है!

किस समाज ने किस यशोधरा को देवी माना है
वही जानती है  कैसे  अपनी मर्यादा सम्हाली है!

इस टूटे और जर्जर पड़े घर के दायरे में
किस तरह से अपनी  बच्चियाँ  पाली  है!

कहते हैं अपनी शादी वाले  दिन को
उसका बदन चाँद-तारों की डाली थी!

हाथों में हीना की होली, आँखों में ख़ुशी की दीवाली
अपने चेहरे पर उसने परियों सी घूँघट निकाली थी!

पूरा  शहर हो गया था दीवाना उस का
जो जीती जागती मुकम्मल कव्वाली थी!


कैसी खुश थी, कैसे हँसती-खिलखिलाती थी
मानो कि उसके दामन में जन्नत की लाली थी!

अपना सब कुछ कर दिया समर्पण अपने देवता को
बन कर गुलाम,  खुद  ही अपनी लाश  उठा ली थी! 

भगवान् पूजा जाने लगा और ग़ुलाम शोषित होने लगा
औरतों की यह दशा भगवानों की देखी और भाली थी!

भगवान् मुक्त होता चला गया हर बंधन से
औरत खूँटे से बँधी हुई चहार- दिवाली थी!

मर्द का मन नहीं  रोक  सकी  उसकी कोमल  काया
अपने भगवान् के लिए वो अब अमावस सी काली थी!  

बारिश में टपकते हुए छत के साथ वो भी  रोया करती है
वो अब भी उतनी ही खाली है जितनी कल तक खाली थी!

कुछ बच्चियाँ मर गईं और कुछ छोड़ कर चली गईं
इस सभ्य समाज के लिए कहते हैं  वो एक गाली है!

अपने भगवान् को ना छोड़ने की कसम खाई थी, सो
मौत के एवज में न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ टाली हैं!

सूखे होंठ, धँसी आँखें, बिखरे बाल, पिचके गाल
सोलह की उम्र में ही लगती बुढ़ापे की घरवाली है!

वो बुढ़िया कल भी अकेली थी
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है...!



सलिल सरोज
समिति अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन ,नई दिल्ली
+91 9968638267
( प्रस्तुतिकरण: सुजाता कुमारी)

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