कोविड 19 औऱ भारतीय प्रशासनिक सेवा - 70 साल बाद भी नागरिक प्रशासन में औपनिवेशिक भार से दबा भारत..!

मप्र में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य के पद से हटाए गए अफसर बीए पास कर आईएएस बने है।इसी तरह न्यूक्लियर साइंस से एम टेक एक आईएएस पहले चिकित्सा शिक्षा,खाद्य और अब सँस्कृति के प्रमुख सचिव है। एमबीबीएस एमडी पृष्ठभूमि से आये अफसर बिजली कम्पनी के सीएमडी या जनसंपर्क के कमिश्नर हैं।
इसे भारतीय प्रशासन तन्त्र की एक विसंगति औऱ इससे खड़ी हुई व्यवस्थागत त्रासदी के रूप में विश्लेषित किये जाने की सामयिक आवश्यकता है।आजादी के 74 साल बाद भी क्या भारत एक सक्षम एवं उत्कृष्ट नागर प्रशासनिक सेवा के लिए भटक रहा है?अनुभवजन्य जबाव हमारी सिविल सेवा के लिए समेकित रूप से कटघरे में खड़ा करते है।सुशासन,नवोन्मेष,लोककल्याण औऱ राष्ट्रीय पुनर्निमाण में सिविल सेवा के सामाजिक अंकेक्षण का यह सबसे उपयुक्त समय भी कहा जा सकता है।
कोविड संकट के बाद जब पूरी दुनियां में जीवन से जुड़े प्रतिमान ध्वस्त हुए है और नए विकल्प  तेजी के साथ विश्व व्यवस्था का हिस्सा बन रहे है तब भारतीय नोकरशाही को लेकर चर्चा स्वाभाविक ही है। बुनियादी रूप से कुछ पहलुओं पर हमें सोचना होगा मसलन जिस संघ लोकसेवा आयोग की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नही उठा उसके द्वारा चयनित लोकसेवक देश मे वैसी ही साख  अपनी कार्यसंस्कृति के मामले में क्यों नही बना पाए है?दूसरा क्या इस जटिल और पराक्रम केंद्रित परीक्षा को पास करने वाले अभ्यर्थी विशेषज्ञ के रूप में स्वतः अधिमान्यता प्राप्त कर लेनें के  स्वाभाविक हकदार है? 
कलेक्टर यानी जिलाधिकारी के रूप में हम जिस आईएएस को सिविल सेवक के रुप में देखते है वह उसी  सीमित भूमिका में 60 साल की आयु तक काम नही करता है।सेवावधि बढ़ने के साथ ही उसे मौजूदा प्रशासनिक ढांचे में नीति निर्माता के रूप में भी काम करना होता है।सवाल यही है कि क्या नीतियों का निर्माण केवल पब्लिक पॉलिसी में विदेशी डिग्री हासिल करने से समावेशी हो सकता है ?जैसा कि अधिकतर आईएएस अफसर इस डिग्री को सेवा में आने के बाद हासिल करते रहते है।
सवाल यह भी है कि जो विशेषज्ञ अफसर इस सेवा में मौजूद है उनकी एकेडमिक पृष्ठभूमि का उपयोग  मौजूदा ढांचे में कहां तक हो पाता है।कोविड संकट के दौरान करीब साढ़े तीन हजार आदेश,सरक्युलर,एडवाइजरी,केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी किए गए है।यह प्रशासन के "लेवियाथन" स्वरूप को प्रमाणित करने वाला पक्ष है।जबकि प्रधानमंत्री मोदी  "मिनिमम गवर्मेंट मैक्सिमम गवर्नेंस"के दर्शन में भरोसा करते है।कोविड संकट में कभी आगरा तो कभी भीलवाड़ा मॉडल की चर्चाएं हमनें मीडिया में सुनीं लेकिन अंततः नतीजे सिफर रहे।देश में एक भी जिला कलेक्टर अपनी निर्णयन क्षमता के आधार पर कोविड मामले में नवोन्मेषी औऱ अनुकरणीय साबित नही हुआ।जबकि यह एक ऐसा अवसर भी था जब भारत के सर्वाधिक प्रज्ञावान अफसर अपने सुपर एलीट औऱ एक्सपर्टीज वैशिष्ट्य को प्रमाणित कर सकते थे।मैदानी स्तर पर सभी कलेक्टर अपने राज्यों की राजधानियों या दिल्ली के सरक्युलर का इंतजार कर तत्संबंधी आदेश अपनी पदमुद्राएँ लगाकर जारी करते रहे।धारा 144 औऱ कर्फ़्यू के लिए पाबन्द करती मैदानी पदस्थापना ऐसी कोई मिसाल प्रस्तुत नहीं कर पाईं जो तत्कालीन संकट में अनुकरणीय हो।
जिस अंग्रेजियत मनोविज्ञान औऱ नफासत के लिए भारत की  सिविल सेवा बदनाम है उसका उच्चतम स्वरूप हमें  कोविड में भी नजर आया।कल्पना कीजिये अगर हर जिले का डीएम अपने जिले के व्यापारियों,धार्मिक ट्रस्टों,एनजीओ के प्रतिनिधियों से व्यक्तिगत संपर्क,संवाद कर वंचितों औऱ प्रवासी श्रमिकों के लिए मदद के हाथ फैलाता तो क्या बदली हुई तस्वीरें सामने नही आई होती।हर जिले में कलेक्टर एक टीम लीडर की तरह नजर आ सकते थे वे जनभागीदारी की वैश्विक मिसाल कायम कर सकते थे।लेकिन अधिकतर जगह बिल्कुल उलट हुआ जिला और पुलिस प्रशासन का पूरा जोर डंडे के बल पर लोकडाउन सफल करने में रहा।जबकि यह लॉक डाउन कानून व्यवस्था या सुरक्षा से सीधा जुड़ा न होकर जनस्वास्थ्य से संबद्ध था।लेकिन हमारी सिविल सर्विस बिल्कुल अंग्रेज़ी हुकूमत की तरह काम करती दिखी जबकि आवश्यकता एक भरोसे को कायम करने की थी।कानूनी सख्ती में भी न समरूपता नजर आई न निष्पक्षता।विवेकाधिकार के रूप में डीएम उन कामों से भी किनारा करते रहे जो इस दौरान प्रशासन और गरीब वर्ग के बीच नया रिश्ता कायम कर सकते थे।मसलन हजारों गरीब राशन के लिए दफ्तरों में चक्कर लगाते रहे लेकिन किसी डीएम ने ऐसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों के हक में सरकारों से अनुमति की प्रत्याशा में उपलब्ध अनाज का वितरण तक नही किया।क्या एक कलेक्टर अपने स्तर पर अपने हजारों कर्मचारियों के प्रमाणीकरण के आधार पर ऐसा नही कर सकता था?
संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाइए की लगभग 40 फीसदी पीडीएस का कोटा तो इस दौरान वितरित ही नही हुआ है।खुद खाद्य मंत्री रामविलास पासवान इस पर अफसोस जाहिर कर चुके है। क्या जिलों में इस स्थिति को अपना पूरा पराक्रम झोंक कर आईएएस अफसर बदल  नही सकते थे।लेकिन वे अतिरिक्त रिस्क औऱ पश्चावर्ती शिकवा शिकायत से डरे नजर आए।जबकि तथ्य यह है कि हर शिकायत की तस्दीक सरकार के लिए अंतिम रूप से आइएएस ही करते है।
जाहिर है त्वरित निर्णयन,लोककल्याण औऱ संवेदनशीलता के मोर्चे पर भारतीय सिविल सेवा का ढांचा आज भी यथास्थितिवाद पर अबलंबित है।
जर्मन विद्वान मैक्स वेबर ने 1920 में अपनी पुस्तक " the theory of social and economic organization"में पहली बार ब्यूरोक्रेसी को लोकतन्त्र का आदर्श प्रतिरूप कहा।उन्होंने 'निष्पक्षता' और 'तटस्थता'को नौकरशाही का बुनियादी तत्व भी निरूपित किया है।
संविधान सभा में आईसीएस को समाप्त करने या न करने को लेकर  व्यापक बहस हुई थी।इस दौरान यह विनिश्चय किया गया कि नई अखिल भारतीय सेवाएं लोककल्याण और संवैधानिक प्रत्याभूति को समर्पित रहेंगी।हालांकि डॉ राममनोहर लोहिया इस औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोधी थे।सरदार पटेल ने तत्कालीन परिस्थितियों के लिहाज से इसकी वकालत करते हुए  इस सेवा को "स्टील फ्रेम"की संज्ञा दी थी।
73 साल बाद भारत का  नागरिक प्रशासन तन्त्र क्या इसके ध्येय अनुरूप अबलंबित रहा है?इस सवाल के जबाब में हमें हांगकांग की एक प्रतिष्ठित कंसल्टेंट फर्म "पॉलिटिकल एन्ड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड''की वैश्विक व्यूरोक्रेसी रैंकिंग पर नजर डालनी होगी।भारत की ब्यूरोक्रेसी को 10 में से 9.21वे स्थान पर रखा गया है।यानी सबसे बदतर।
वियतनाम 8.54, इंडोनेशिया 8.37, फिलीपींस7.57, चीन7.11, सिंगापुर2.25, हांगकांग3.53, थाईलैंड 5.25, जापान 5.77, दक्षिण कोरिया 5.87, मलेशिया 5.84 रैंक पर रखे गए है।
इस रपट में भारत की अफसरशाही को सबसे खराब रैंकिंग दी गई है।
सवाल यह है कि क्या इस स्थिति के लिए केवल नेताओं को दोषी ठहराया जाना चाहिए?सरकारें बदलना जम्हूरियत में एक स्वाभाविक घटनाक्रम है।नई सरकार अपनी सुविधा और भरोसे के अनुरूप अफसरों को पदस्थ कर सकती है।बुनियादी रूप से शीर्ष अफसरशाही को न केवल कोड ऑफ कंडक्ट बल्कि कोड ऑफ इथिक्स का पालन करना चाहिये। लेकिन अनुभव बताते है कि अफसर अपनी सुविधा के लिए दोनों कोड खूंटी पर टांग देते है।जिन्हें जनता की बोली में मलाईदार कुर्सी कहा जाता है उसे पाने के लिए आज अधिकतर अफसर मंत्रियों के इर्द गिर्द परिक्रमा करते रहते है।मुख्यमंत्री के परिजनों,उनके सम्पर्क के सत्ताधारी कार्यकर्ताओं को साधते है।जिलों में कलेक्टर ,एसपी, एसएसपी,डीएफओ की मैदानी पोस्टिंग के लिए क्या क्या हथकंडे अफसर नही अपनाते यह अब किसी से छिपा नही है।यह आमधारणा बन गई है कि कलेक्टर ,एसपी,डीएफओ की कुर्सी मुफ्त में नही मिलती है।इसी तरह माइनिंग,आबकारी,मंडी बोर्ड,परिवहन,जनसंपर्क,ट्राइबल,बिजली कम्पनी की कमान संभालने वाले अफसर केवल योग्यता के बल पर पदस्थापना नही पाते है।खासबात यह है कि राज्य का मुख्यसचिव,डीजीपी भी केवल तभी तक पद पर रह सकते है जब उन्हें मुख्यमंत्री का निजी बिश्वास हासिल रहता है।अफसरों ने इस स्थिति को खुद अपनी नैतिक समझौता परस्ती से निर्मित किया है क्योंकि आज  के किसी मुख्य सचिव या डीजीपी में इतना नैतिक साहस नही रहता है कि वह मुख्यमंत्री से आंख मिलाकर बात कर सकें। 
अधिकतर मुख्य सचिव और डीजीपी वरिष्ठताक्रम को दरकिनार कर कुर्सी पा रहे है और यह अनुकम्पा विशेष और व्यक्तिगत समर्पण के संभव नही होती है।मैदानी और मलाईदार पदस्थापना के लालच में अधिकतर अफसर नैतिक रूप से पथभृष्ट हो जाते है और वे राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र को अमल में लाने की प्रतिस्पर्धा में जुट रहते है।
दिग्विजयसिंह के बारे में कहा जाता था कि वे प्रायः रोज सभी कलेक्टर और एस पी से टेलीफोन पर चर्चा करते थे।अफसर खुद अपने व्यवहार से सत्ताधारी दल के अर्दली की भूमिका ले लेते है।जिस दल की सरकार होती है उसके विधायक और स्थानीय कार्यक्रयाओं के तमाम कलेक्टर एसपी अपने चैम्बर में चाय पिलाते है और विपक्षी विधायकों को बाहर इंतजार कराते है।जबकि सत्कार नियम 'पदक्रम' कहता है विधायक राज्य के मुख्य सचिव के समकक्ष है।किसी भी राज्य में इस कानून का पालन नही होता है।यानी राज्य की अफसरशाही दलीय एजेंडे के हिसाब से काम करती है। 
विरोधियों को कुचलने के लिए  अब न केवल पुलिस बल्कि प्रशासन के अफसर भी चेम्पियन की तरह काम करते है।जबकि कानून ऐसे किसी राजनीति आधारित भेदभाव की इजाजत नहीं देता है।समझा जा सकता है यह समझौता परस्ती क्यों और किस निमित्त से होती है।नेताओं ने अफसरशाही के इस दुर्बल पक्ष को पकड़ लिया है वे भी समानांतर रूप से संविधान के मूल्यों और भावनाओं को रौंदने में इनका उपयोग करते है। 
शुचिता और निष्पक्षता की मान्य परम्पराओं आजादी के बाद शुरुआती दौर में दोनों पक्षों ने कायम रखने की कोशिशें की थी।एक जिले में पदस्थ कलेक्टर और एसपी अमूमन अपने सेवाकाल में फिर से उस जिले में पदस्थ नही किये  जाते थे।गृह जिलों के आसपास भी अफसरों को तैनात करने से परहेज होता था।आज हालात यह है कि जिन डीएम एसपी को चुनाव में निर्वाचन आयोग शिकायतों के बाद हटा देता है।वे अचार सहिंता हटते ही ठसक के साथ उन्ही जिलों में पदस्थ कर दिये जाते है।मानों सरकार उन्हें अपने चुनावी एजेंडे पर काम करने का इनाम दे रहीं हो।देश भर की मीडिया में थप्पड़ कांड के चलते छाई रहीं राजगढ़ की कलेक्टर निधि निवेदिता को शिवराज सिंह ने शपथ लेते ही हटा दिया।
सवाल यह है कि सीएए समर्थक बीजेपी के कार्यकर्ताओं को थप्पड़ मारकर क्या निधि निवेदिता तत्कालीन कमलनाथ सरकार के लिए स्वप्रेरित रोल मॉडल नही बन रही थी?उनका यह कृत्य कलेक्टर संस्था को बीजेपी  कांग्रेस में बांटने का काम कर गया।सीएए पर राज्यों में बीजेपी और गैर बीजेपी राज्यों के कलेक्टर ने  धरना,प्रदर्शन ,जुलूस अनुमतियों के मामले में विशुद्ध राजनीतिक आधार पर निर्णय लिए।यहां कोड ऑफ कंडक्ट का कोई पालन नही हुआ।एक दौर तक डीएम या एसपी मुख्यमंत्री या दूसरे मंत्रियों के साथ सार्वजनिक मंचों पर नही आते थे ।
अब लगभग सभी अफसर ठसक से मंच साझा करते है जहां विशुद्ध राजनीतिक प्रलाप होते है।बेशर्मी की सीमाएं लांघते हुए अधिकतर कलेक्टर सीएम,पीएम या अन्य नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाने में सरकारी मशीनरी का प्रयोग करते है।यह स्थिति देश के सभी राज्यों में है। तथ्य यह है कि मैदानी और मंत्रालय के अफसर सत्ताधारी दल के एजेंट बनकर रह गए है। असल में खुद को सबसे ताकतवर समझने वाली आईएएस,आईपीएस बिरादरी खुद नैतिक रूप से आज इतनी कमजोर है कि वह अशोक खेमका(हरियाणा),श्रीमती गौरी सिंह (मप्र) अभिताभ ठाकुर(यूपी)जैसे कई अफसरों के साथ खड़े होने का साहस नही जुटा पाती हैं।
जाहिर है एक ऐसी सिविल सेवा की आज आवश्यकता है जो इस औपनिवेशिक मनोविज्ञान की जगह बदलती जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो।लैटरल इंट्री के जरिये जो प्रयोग मोदी सरकार ने किया है उसे आगे विस्तार देने की आवश्यकता है।
भर्ती प्रक्रिया में विशेषज्ञता के प्रावधान जोड़ने से फ्लैगशिप स्कीमों का क्रियान्वयन त्वरित होगा।मसलन स्वास्थ्य,शिक्षा,तकनीकी,कला,विज्ञान और खेल जैसे क्षेत्रों के लिए स्थाई सिविल सेवा कोटा बनाया जाए।ऊर्जा,स्वास्थ्य,सूचना तकनीकी जैसे क्षेत्र के विशेषज्ञ उपाधिधारक  रिटायरमेंट तक अपने ही क्षेत्र में काम करें।इससे सबंधित क्षेत्रों में नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक मे बेहतर नतीजे आएंगे।सिविल सेवा भर्ती का दायरा भी सीमित किया जाना चाहिये यानी नागरिक प्रशासन के लिए यूपीएससी की सयुंक्त भर्ती को खत्म किया जाए ताकि वित्त,विदेश,सूचना,पुलिस,के लिए अलग से विशेषज्ञ प्रशासक मिल सकें।
आईएएस के स्थान पर भारतीय नागरिक सेवा का विशिष्ट संवर्ग मैदानी प्रशासन के लिए कारगर साबित हो सकता है और इसके लिए आवश्यक है कि भर्ती की न्यूनतम औऱ अधिकतम आयु सीमा को 1970 के नियमों पर लाया जाए ताकि युवा और ऊर्जावान जिलाधिकारी देश को मिल सकें।बेहतर होगा यूएसए की तर्ज पर निश्चित समयावधि के लिए भी इन अफसरों की भर्ती का प्रावधान हो ताकि मिशन मोड़ वाले कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में सफल हो।
फ़िलहाल विसंगतियों का आलम यह है कि बीए पास आईएएस हैल्थ मिशन चलाते है अगले कुछ दिनों वही अफसर जलग्रहण मिशन,शिक्षा मिशन के डायरेक्टर हो जाते है।इस सरंचणात्मक ढांचे में न कोई विशिष्टता है न कार्यक्रमों को लागू करने की प्रतिबद्धता ही।
आईएएस परीक्षा पास करने वाले प्रज्ञावान अफसर एक वक्त के बाद बड़े बाबू बनकर रह जाते है।यह भारत जैसे देश के लिए बेहद गंभीर स्थिति है।
नए आईएएस अफसरों को संबोधित करते हुए कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह सिस्टम की प्रोसेस को आज तक नही समझ पाए है क्योंकि जिस काम के लिए वह निजी तौर पर निर्देश देते है वह घण्टों में हो जाता है और रूटीन काम प्रोसेस के नाम पर सालों तक फाइलों में कैद रहते है।
प्रधानमंत्री असल में इसी बाबूशाही औऱ जड़ता की बात कर रहे थे।बेहतर होगा सरकार लेटरल इंट्री पर आगे बढ़े।बगैर आईएएस के पतंजलि,अमूल जैसे सहकारी संस्थानों ने जो गजब की प्रगति की है उसे हम सड़ चुके समाजवाद के नाम पर ढोने के लिये क्यों विवश है।

- डॉ अजय खेमरीया
संपर्क सूत्र:
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