सहजोबाई जी अपनी कुटिया के द्वार पर बैठी थीं। उनकी गुरुभक्ति से खुश होकर परमात्मा प्रकट हो गए, लेकिन सहजोबाई के अंदर कोई विशेष उत्साह नहीं था। परमात्मा ने पूछा- सहजो, हम खुद चलकर तुम्हें दर्शन देने आए हैं, क्या तुम खुश नहीं हो?
सहजोबाई ने हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभु, ये तो आपने मुझ गरीब पर अति कृपा की है, लेकिन मुझे तो आपके दर्शन की कामना ही नहीं है।
परमात्मा ने पूछा- सहजो, तेरे पास ऐसा क्या है, जो तू मेरा दीदार भी नहीं करना चाहती?
सहजोबाई ने कहा- हे प्रभु, मेरे सत्गुरु पूर्ण समर्थ हैं, और मैंने आपको अपने सत्गुरु में ही पा लिया है।
सहजोबाई का ऐसा प्रेमभाव देखकर परमात्मा बहुत खुश हुए और बोले- सहजो, क्या तुम मुझे अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?
सहजोबाई की आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं, वो बोलीं- हे प्रभु, मेरी कुटिया में केवल एक ही आसन है और उस पर मेरे सत्गुरु ही विराजते हैं, क्या आप भूमि पर बैठकर मेरा आतिथ्य स्वीकार करेंगें?
परमात्मा ने कहा- तुम हमें जहां भी प्रेम से बिठाओगी, हम वहीं बैठ जाएंगे।
सचमुच परमात्मा भूमि पर ही बैठ गए और बोले- सहजो, मैं जहां भी जाता हूं, कुछ न कुछ देता जरूर हूं, ऐसा मेरा नियम है। तुम कुछ भी मांग लो।
सहजोबाई ने कहा- हे प्रभु, मेरे जीवन में कोई भी कामना नहीं है। मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
परमात्मा ने कहा- फिर भी कुछ मांग लो।
सहजोबाई ने कहा- हे प्रभु, आप तो स्वयं एक दान हो, जिसे मेरे दाता सत्गुरु अपने भक्तों को जब चाहे दान में देते हैं। आपने तो प्राणी को जन्म-मरण, रोग-भोग और सुख-दुःख में उलझाया है, ये तो मेरे सत्गुरु दीनदयाल ने कृपा कर हमें विधि बताकर, शरण में आए हुए को सहारा देकर और उसे निर्भय बनाकर उस द्वन्द्व से छुड़ाया है।
परमात्मा मुस्कुराते हुए कहते हैं- सहजो, आज मुझे कुछ सेवा दे दे।
सहजोबाई ने कहा- हे प्रभु, एक सेवा है। मेरे सत्गुरु आने वाले हैं और जब मैं उन्हें भोजन कराऊं, तो क्या आप पीछे खड़े होकर चंवर डुला सकते हो?
फिर परमात्मा ने सहजोबाई के गुरु, संत चरणदास जी पर चंवर डुलाया था।
ये है सत्गुरु के प्रति सच्चा समर्पण!
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)
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