(कवि सलिल सरोज से प्रकाशन हेतु प्राप्त मार्मिक कविता "दर्द" - सर्वोपरि संपादिका)
दर्द का भी
दर्द
कैसा भी हो,
दर्द की सीमा
को भी दर्द
एक सीमा के बाद
अपना लगने लगता है
क्योंकि
अपनों से ज्यादा दर्द
किसी और से नहीं होता है...
दर्द
इंसान को
कभी खाली नहीं रहने देता है,
वरना
खाली रहना बहुत बड़ा दर्द है...
दर्द
पालते रहना चाहिए,
क्षणभंगुर ख़ुशी के बाद
यही शाश्वत है
और
यही अनश्वर है...
दर्द
कभी सरहदों में
बँधा नहीं होता,
उस पार
जब ज़मीं रोती है,
इस पार
फसल कभी अच्छी नहीं होती है...
दर्द
किसने दिया से
ज्यादा जरूरी है
दर्द क्यों लिया,
हर एक से
हर चीज़ ली नहीं जाती...
दर्द
पीठ दिखा कर भागता नहीं,
साथ-साथ चलता रहता है
तब तक
जब तक
इसे स्वीकार नहीं लिया जाता...
दर्द
भविष्य के स्वप्न सँजोय
हर द्वार पर
किसी देवता की तरह
खड़ा रहता है
और इंतज़ार में रहता है
अपने अर्घ्य के लिए...
दर्द
सिर्फ चीख-चीत्कारों में
घर नहीं करता!
पूछो उससे
जो बोल सकता है,
लेकिन कभी बोलता नहीं...
दर्द
सफर है,
हम पथिक की तरह
उसके रास्ते में
आते-जाते रहते हैं...
कवि: सलिल सरोज
(कार्यकारी अधिकारी,
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन, नई दिल्ली।
मोबाइल:
9968638267
आवासीय पता:-
जी 006, टॉवर 3,
पंचशील पेबल्स, वैशाली, सेक्टर 3,
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश-201014)
(छायाचित्र: इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध सार्वजनिक स्रोतों के सौजन्य से)
Comments