एक राजा को पता चला कि एक बहुत ही पहुंंचे हुए महात्मा जी उसके नगर में आने वाले हैं। राजा उनके स्वागत के लिए नगर के बाहर खड़ा हो गया और उनको भेंट देने के लिए कीमती जेवर और अन्य सामान साथ में ले आया। जब महात्मा जी पहुंचे तो राजा ने उनको वो सारा सामान भेंट किया।
तब महात्मा जी ने कहा- मुझे वो दो, जो तुम्हारा है।
राजा ने कहा- ये सारा सामान मेरा है।
महात्मा जी ने कहा- ये तो प्रजा का है।
राजा ने कहा- सिंहासन की गद्दी ले लीजिए।
महात्मा जी ने कहा- ये तो प्रजा की बनाई हुई है।
राजा ने कहा- मेरा परिवार आपके सामने भेंट है।
महात्मा जी ने कहा- ये भी कर्म के अनुसार ही तुमको मिला है।
अंत में राजा कहा- हे महात्मा जी, आप ही बताएं मैं ऐसा क्या भेंट करूं, जो मेरा है।
तब महात्मा जी ने बड़ी ही निम्रता से कहा- मुझे तेरी बनाई हुई मैं और मेरी दे दे।
फिर राजा ने अपना मुकुट निकालकर महात्मा जी के सामने रख दिया और कहने लगा- महात्मा जी, मैं और मेरी तो इसी से आती है।
तब महात्मा जी ने वापस मुकुट राजा को पहनाया और कहा- अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए जिस जगह भी रहो मालिक (परमात्मा) की सेवा उसकी समझकर करना। धन-दौलत वगैरह सब कुछ उसी का है और मेरा इस संसार में कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी दिया है, सब उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। संसार में सब चीजों को इधर ही छोड़कर चले जाना है।
------ मेरा मुझमें कुछ नहीं ------
------ जो कुछ है सो तेरा ------
------ तेरा तुझको सोंप दे ------
------ क्या लागे है मेरा ------
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य)
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