संत कबीर साहब जी अपने दोहे में फरमाते हैं-
"हरि रूठे ठौर है!
गुरु रूठे नहि ठौर! "
अर्थात - भगवान के रूठने या नाराज होने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है। किंतु, गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है।
जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याण मित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सत्गुरु कहा है, उस श्री गुरू से उपनिषद की तीनों अग्नियां भी थर-थर कांपती हैं।
त्रैलोक्यपति भी गुरू का गुणगान करते हैं। ऐसे गुरू के रूठने पर कहीं भी ठौर (ठिकाना) नहीं है।
अपने दूसरे दोहे में संत कबीर साहब जी फरमाते हैं
"सत्गुरु की महिमा अनंत!
अनंत किया उपकार!"
अर्थात - सत्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्यों पर अनंत उपकार किए हैं। उन्होंने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की आंखों को ज्ञान चक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं, बल्कि अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है।
"भली भई जुगुर मिल्या,
नहि तर होती होणि!
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं,
पडता पूरी जाणि!"
अर्थात - अच्छा हुआ कि सत्गुरु मिल गए।वर्ना बड़ा अहित होता।
जैसे सामान्य जन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता।
पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है और सामान्य जन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आप को न्यौछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती।
अत: सत्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते हैं, मुझ मनुष्य की बिसात क्या?
सत्गुरु को शत-शत नमन.......!
(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ)
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