वास्तविक मेरा क्या है?

एक सेठ बड़ा साधु सेवी था। जो भी सन्त महात्मा नगर में आते वह उन्हें अपने घर बुला कर उनकी सेवा करता। एक बार एक महात्मा जी सेठ के घर आये।

 सेठानी महात्मा जी को भोजन कराने लगी। सेठ जी उस समय किसी काम से बाज़ार चले गये।

भोजन करते करते महात्मा जी ने स्वाभाविक ही सेठानी से कुछ प्रश्न किये।

पहला प्रश्न यह था कि तुम्हारा बच्चे कितने हैं? सेठानी ने उत्तर दिया कि ईश्वर की कृपा से चार बच्चे हैं।

महात्मा जी ने दूसरा प्रश्न किया कि तुम्हारा धन कितना है? उत्तर मिला कि महाराज! ईश्वर की अति कृपा है लोग हमें लखपति कहते हैं।

महात्मा जी जब भोजन कर चुके तो सेठ जी भी बाज़ार से वापिस आ गये और सेठ जी महात्मा जी को विदा करने के लिये साथ चल दिये।

मार्ग में महात्मा जी ने वही प्रश्न सेठ से भी किये जो उन्होंने सेठानी से किये थे। पहला प्रश्न था कि तुम्हारे बच्चे कितने हैं ? सेठ जी ने कहा महाराज! मेरा एक पुत्र है।

महात्मा जी दिल में सोचने लगे कि ऐसा लगता है सेठ जी झूठ बोल रहे हैं। इसकी पत्नी तो कहती थी कि हमारे चार बच्चे हैं और हमने स्वयं भी तीन-चार बच्चे आते-जाते देखे हैं और यह कहता है कि मेरा एक ही पुत्र है।

महात्मा जी ने दुबारा वही प्रश्न किया, सेठ जी तुम्हारा धन कितना है? सेठ जी ने उत्तर दिया कि मेरा धन पच्चीस हज़ार रूपया है।

महात्मा जी फिर चकित हुए इसकी सेठानी कहती थी कि लोग हमें लखपति कहते हैं। इतने इनके कारखाने और कारोबार चल रहे हैं और यह कहता है मेरा धन पच्चीस हज़ार रुपये है।

महात्मा जी ने तीसरा प्रश्न किया कि सेठ जी! तुम्हारी आयु कितनी है?

सेठ ने कहा-महाराज मेरी आयु चालीस वर्ष की है महात्मा जी यह उत्तर सुन कर हैरान हुए सफेद इसके बाल हैं, देखने में यह सत्तर-पचहत्तर वर्ष का वृद्ध प्रतीत होता है और यह अपनी आयु चालीस वर्ष बताता है। सोचने लगे कि सेठ अपने बच्चों और धन को छुपाये परन्तु आयु को कैसे छुपा सकता है?

महात्मा जी रह न सके और बोले-सेठ जी! ऐसा लगता है कि तुम झूठ बोल रहे हो?

सेठ जी ने हाथ जोड़कर विनय की महाराज! झूठ बोलना तो वैसे ही पाप है और विशेषकर सन्तोंं के साथ झूठ बोलना और भी बड़ा पाप है।

आपका पहला प्रश्न मेरे बच्चों के विषय में था। वस्तुतः मेरे चार पुत्र हैं किन्तु मेरा आज्ञाकारी पुत्र एक ही है। मैं उसी एक को ही अपना पुत्र मानता हूँ।

जो मेरी आज्ञा में नहीं रहते वे मेरे पुत्र कैसे?

दूसरा प्रश्न आपका मेरा धन के विषय में था। महाराज! मैं उसी को अपना धन समझता हूँ जो परमार्थ की राह में लगे।

मैने जीवन भर में पच्चीस हज़ार रुपये ही परमार्थ की राह में लगाये हैं वही मेरी असली पूँजी है।

जो धन मेरे मरने के बाद मेरे बन्धु-सम्बन्धी ले जाएंगे वह मेरा कैसे हुआ?

तीसरे प्रश्न में आपने मेरी आयु पूछी है। चालीस वर्ष पूर्व मेरा मिलाप एक आप जैसे साधु जी से हुआ था।

उनकी चरण-शरण ग्रहण करके मैं तब से भजन-अभ्यास और साधु सेवा कर रहा हूँ। 

इसलिये मैं इसी चालीस वर्ष की अवधि को ही अपनी आयु समझता हूँ।

'कबीर संगत साध की साहिब आवे याद।

लेखे में सोई घड़ी, बाकी दे दिन बाद।।"

जब कभी सन्त महापुरुषों का मिलाप होता है-उनकी संगति में जाकर मालिक की याद आती है, वास्तव में वही घड़ी सफल है। शेष दिन जीवन के निरर्थक हैं....! 

(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ) 

 

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