कहते हैं लोग कि मुस्कुराती बहुत हूँ मैं - (नारी-काव्य)

ख्वाहिश नहीं है मुझे

मशहूर होने की!

आप मुझे पहचानते हो, 

बस इतना ही काफी है!

अच्छे ने अच्छा और 

बुरे ने बुरा जाना मुझे!

जिसकी जितनी जरूरत थी, 

उसने उतना ही पहचाना मुझे!

जिंदगी का फलसफा भी

कितना अजीब है!

शामें कटती नहीं और 

साल गुजरते चले जा रहे हैं...!

एक अजीब सी दौड़ है ये 

जिंदगी जीत जाओ तो कई 

अपने पीछे छूट जाते हैं!

और हार जाओ तो 

अपने ही पीछे 

छोड़ जाते हैं....!

बैठ जाती हूं बालू पे अक्सर,

समंदर किनारे औकात छोटी 

मुझे अपनी अच्छी लगती है!

हंसती हूँ खिलखिला कर 

हवाएं छू बदन को मेरे

चोली मेरी जब कसती हैं...! 

मैंने समंदर से सीखा है, 

जीने का सलीका - 

चुपचाप से बहना 

और अपनी मौज में रहना...!

ऐसा नहीं कि 

मुझमें कोई ऐब नहीं है!

पर सच कहती हूँ, 

मुझमें कोई फरेब नहीं है!

जल जाते हैं 

सरद पानी में ही 

हसीं अंदाज से दुश्मन मेरे!

एक मुद्दत से मैंने 

न तो मोहब्बत 

और न ही दोस्त बदले हैं...!

एक घड़ी खरीदकर

हाथ में क्या बांध ली,

वक्त पीछे ही पड़ गया मेरे...!

सोचा था घर बनाकर

 बैठूंगी सुकून से!

पर घर की जरूरतों ने

मुसाफिरन बना डाला मुझे...!

सुकून की बात मत कर

ऐ गालिबा साहिबा, 

बचपन वाला इतवार

अब नहीं आता...!

जीवन की भागदौड़ में क्यूं 

वक्त के साथ रंगत खो जाती है!

हंसती-खेलती जिंदगी भी 

आम हो जाती है...!

एक सवेरा था जब 

हंसकर उठती थी मैं!

...और आज कई बार बिना 

मुस्कुराए ही शाम हो जाती है!

कितनी दूर निकल गई मैं 

रिश्तों को निभाते-निभाते!

खुद को खो दिया मैंने 

अपनों को पाते-पाते!

कहते हैं लोग कि 

मुस्कुराती बहुत हूँ मैं!

...और थक गई मैं 

दर्द छुपाते-छुपाते!

खुश हूं और 

सबको खुश रखती हूं!

लापरवाह हूं खुद के लिए 

मगर सबकी परवाह करती हूं!

मालूम है कि कोई

मोल है नहीं मेरा!

...फिर भी कुछ अनमोल 

लोगों से रिश्ते रखती हूं!

(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियां)


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