मांसाहारी या शाकाहारी - भजन के लिए?

संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जब कोई परिजन मर जाता है तो उसे तो लोग तुरंत श्मशान में ले जाकर फूंक आते हैं और फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल-मल कर नहाते हैं। 

मगर विडंबना देखो! नहाने के थोड़ी देर बाद ही, बाहर से किसी मरे हुए जानवर का मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं! खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं! तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं! 

बात इतने पर भी खत्म नहीं होती।आस-पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा-गाकर बखान भी करते हैं। मगर ये मूर्ख यह नहीं जानते हैं कि जाने-अनजाने में ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं।

कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार और शनिवार को तो "मैं माँस नहीं खाता!"

पर क्या यही दो दिन हमें धार्मिक बातें माननी चाहिएं? 

क्या बाकी दिन परमात्मा के नहीं हैं? 

जब हमें पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है और परमात्मा को पसंद नहीं है तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए? 

वैसे भी क्या हम मंदिर में कभी माँस वगैरह लेकर जाते हैं? नहीं न! 

तो फिर क्या यह शारीर परमात्मा का जीता-जागता मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है जिसे हम बाहर पूजते हैं। तो फिर इस जीवंत मंदिर में माँस क्यों?

संत कबीर जी ने सही कहा है कि हमने तो इस मंदिर रुपी शरीर को कब्र बना दिया है।

जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा है कि हम माँस खाने वाली वो चलती-फिरती कब्रें हैं जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफन की गई हैं।

गुरु ग्रन्थ साहिब में बानी में आता है-

"जीअ बधहु सु धरमु करि, 

थापहु अधरमु कहहु कत भाई। 

आपस कउ मुनिवर करि थापहु, 

का कउ कहहु कसाई।।"

अर्थात- "यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे?"

हर जीव की एक विशेष खुराक है और अपना एक स्वाभाविक भोजन है। वो उसी का भक्षण करता है और उसी पर कायम रहता है। 

शेर भूखा होने पर भी कभी शाक और पत्तियां नहीं खाएगा। 

गाय चाहे कितनी भी क्षुधाग्रस्त  क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी। 

क्या कभी गाय को मांसाहार करते हुए देखा है? 

बस एक इंसान ही है जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य-अभक्ष्य खा लेता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि में स्वयं विचार करना चाहिए कि पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है।

"जैसा खाओ अन्न, 

वैसा होगा मन! 

और जैसा खाओ भोजन, 

वैसा ही होगा भजन!!"


प्रस्तुतिकरण:
संपादकीय मंडली 
आत्मीयता पत्रिका
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)


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