एक बहुत ही पहुंंचे हुए महात्मा जी थे। उनकी कुटिया गांव से कुछ दूरी पर थी और उनके साथ कुछ शिष्य भी रहा करते थे।
एक दिन शिष्यों में आपस में बहस होने लगी कि महात्मा जी की नजरों में सबसे श्रेष्ठ कौन है। और फिर यह बहस महात्मा जी तक पहुंच गई।
महात्मा जी ने समझाया- "जिस तरह सूरज की किरणें सभी पर एक जैसी पड़ती हैं, उसी तरह मेरी नज़रों में भी तुम सब समान हो। कोई अमीर या गरीब नहीं है और कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है।"
फिर भी शिष्यों को संतुष्टि नहीं हुई और कुछ मुंहलगे शिष्य महात्मा जी के पीछे पड़ गए कि आज तो आपको बताना ही पड़ेगा।
तब महात्मा जी ने एक उस शिष्य की ओर इशारा किया जो इस बहस से दूर अपनी मस्ती में बाहर मिट्टी के ढेर पर बैठा था।
इतना देखते ही सब एक साथ बोल पड़े- "वो तो कभी सेवा करते दिखा नहीं, बस अपनी धुन में ही बैठा रहता है।"
इस पर महात्मा जी ने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया और सबके हाथ में एक-एक सिक्का दे दिया और कहा- "इस सिक्के को ऐसी जगह छुपाओ कि इसे कोई भी देख न पाए।"
फिर क्या था, सभी ने अपने-अपने हिसाब से वो सिक्का छुपा दिया।
थोड़ी देर बाद महात्मा जी ने एक-एक करके सबसे पूछा तो किसी ने वो सिक्का रूई में छुपाया था, किसी ने मिट्टी में छुपाया था और किसी ने गेहूं में छुपाया था, या जिसको जैसा लगा उसने वहां छुपा दिया था।
अंत में महात्मा जी ने उससे पूछा जिसे उन्होंने श्रेष्ठ बताया था।
उस शिष्य ने अपनी मुठ्ठी खोलकर सिक्का दिखाया तो महात्मा जी ने उससे पूछा- "तुमने ये सिक्का क्यों नहीं छुपाया?"
उस शिष्य ने जवाब दिया- "गुरु जी, मुझे ऐसी कोई भी जगह नहीं मिली, जहां परमात्मा न देखता हो।"
तब महात्मा जी ने बाकी सभी को कहा- "देखा तुमने? मैं इसीलिए इसे चाहता हूं क्योंकि ये परमात्मा को देखकर ही सब काम करता है! यह मेरे आने से पहले उस जगह को साफ कर देता है जहां मुझे आना है। तुम सब दिखा कर सेवा करते हो और ये छुपा कर करता है।"
तात्पर्य यह है कि हमें हमेशा दिखावे से दूर रहकर ऐसी सेवा करनी चाहिए कि यदि हम सीधे हाथ से भी सेवा करें तो उल्टे हाथ को भी मालुम न पड़े! ताकि हम भी अपने गुरु की नजरों में श्रेष्ठ बन सकें और परमात्मा को पा सकें!
प्रस्तुतिकरण:
संपादकीय मंडली
आत्मीयता पत्रिका
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)
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