हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिए जाते हैं। दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म हैं, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नहीं आएंगे, तो कर्म कैसे कटेंगे?
एक छोटे बच्चे को उसकी मां साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है, परंतु उस मां को उसके रोने की कुछ भी परवाह नहीं है और जब तक बच्चे के शरीर पर मैल दिखता है, तब तक मां उसी तरह से नहलाना जारी रखती है, और जब मैल निकल जाता है, तब ही मलना और रगड़ना बंद करती है। वो उसका मैल निकालने के लिए ही उसे मलती और रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं। मां उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती है, परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं, इसलिए इससे रोता है।
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई भी लाभ नहीं है, परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए ही वो हमको दु:ख देता है।
अर्थात्, जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने और चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता है।
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें मालिक (परमात्मा) से मिलने के बारे में ही विचार करना चाहिए और नियमित भजन-सुमिरन का ध्यान करना चाहिए।
(स्रोत: भारतीय लोकसाहित्य)
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