जलालुद्दीन रूमी की बिनती

जलालुद्दीन रूमी एक सूफी फकीर हुए हैं। जब वे जवान थे, तो एक दिन उन्होंने खुदा से कहा- ऐ खुदा, मुझे इतनी ताकत दे कि मैं दुनिया को बदल दूं।

खुदा ने उनकी इस बात का कोई भी जवाब नहीं दिया।

फिर एक दिन जलालुद्दीन रुमी ने खुदा से कहा- ऐ खुदा, मुझे इतनी ताकत दे कि मैं अपने बच्चों को बदल सकूं।

इस बात का भी उन्हें खुदा से कोई जवाब नहीं मिला।

अब जलालुद्दीन रूमी जब बूढ़े हो गए, तो उन्होंने फिर खुदा से कहा- ऐ खुदा, मुझे इतनी ताकत दे कि मैं खुद को बदल सकूं।

तब खुदा ने कहा- हे रूमी, यही बात तू जवानी में मुझसे पूछता, तो तेरे अंदर कब की क्रांति घट जाती।

हमारा भी कुछ ऐसा ही हाल है। दुनियां में सबसे ज्यादा कलेश इसी बात का है। पत्नी अपने पति को बदलना (सुधारना) चाहती है, पति अपनी पत्नी को बदलना चाहता है और मां-बाप अपने बच्चों को बदलना चाहते हैं, वगैरह-वगैरह। बस इसी जद्दोजहद में हमारा जीवन बीतता जाता है। हम दूसरों को बदलने की कोशिश में ही लगे रहते हैं, पर हम में से कोई भी अपने आप को बदलना ही नहीं चाहता है।

हम परमात्मा से कभी बाल-बच्चे मांगते हैं, कभी धन-दौलत मांगते हैं, कभी गाड़ियां मांगते हैं, तो कभी बड़े ओहदे या फिर कुछ और ही। पर हम कभी भी परमात्मा से उस कुल परमात्मा को नहीं मांगते, तो फिर हमारा इस परमार्थ के रास्ते पर चलने का क्या फायदा।

जब हम परमात्मा से उसको ही मांगना सीख जाएंगे, तब जाकर हमारे परमार्थ और स्वार्थ दोनों बन पाएंगे।

इसलिए हमें परमात्मा से एक ही बिनती करनी चाहिए- हे मेरे परमात्मा, मुझे बस तू ही चाहिए और तेरे सिवा मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।

फिर हमें नितनेम से भजन बंदगी करनी है, और हर समय उस परमात्मा को याद करना है। बाकी सब उस सच्चे परमात्मा पर छोड़ देना चाहिए और विश्वास रखें कि वो हमारा कोई भी कार्य कभी भी रुकने नहीं देगा बल्कि हमारे सभी कार्यों को वो पूरा करेगा, और अच्छे से अच्छा करेगा। हमें सिर्फ और सिर्फ अपने आप को बदलना है, किसी दूसरे को नहीं और उस कुल परमात्मा के आगे पूर्ण रूप से समर्पण कर देना है।


 मरण मिटै जीवन मिलै

बिनसह सगल कलेस

आप तजहु गोबिंद बझहू

भाउ भगत परवेस... 

(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ) 

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