गीता में ब्रह्म के तीन स्तर

गीता अध्याय 4 श्लोक 32 के अनुवाद में सर्व अनुवादकों ने कोई गलती नहीं की है। ‘‘ब्रह्मणः’’ शब्द का अर्थ "वेद" कर रखा है, जो कि सही अर्थ है। ‘‘ब्रह्मणः मुखे’’ का अर्थ "वेद की वाणी" में किया है, जो कि सही है। "परम ब्रह्म" के तीन स्तर हैं 

(1) परम (पूर्ण) अक्षर ब्रह्म,

(2) अक्षर ब्रह्म 

(3) क्षर ब्रह्म। 

"परम ब्रह्म" ने ही "क्षर ब्रह्म" बन कर चार "वेद" दिए।

(क्षर) ब्रह्म के मुख से ही "वेद" (वाणी/ज्ञान) आए। उन्हीं अनुवादकों ने गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘ब्रह्मणः’’ का अर्थ "सच्चिदानन्द घन ब्रह्म" किया है जो कि उचित नहीं है। इसलिए गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में भी ‘‘ब्रह्मणः’’ का अर्थ "सच्चिदानन्द घन ब्रह्म" अर्थात् "परम अक्षर ब्रह्म" न कर के "क्षर ब्रह्म" करना ही उचित है।

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता अर्थात "क्षर ब्रह्म" ने कहा है कि उस (परम) "ज्ञान" (प्रकाश/परम ज्योत) को (जो क्षर ब्रह्म अपने मुख-कमल से संकेतों से बोलकर सुनाता है, जिस तत्त्वज्ञान का संकेत करता है उसको) तू तत्त्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करने से, कपट छोड़कर नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से तत्त्वदर्शी सन्त तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

इससे यह भी सिद्ध हुआ कि गीता वाला ज्ञान पूर्ण नहीं है, परन्तु गलत भी नहीं है। अर्थात, गीता में "परम ज्ञान" के बारे में केवल संकेत दिया गया है। गीता ज्ञानदाता को, अर्थात "क्षर ब्रह्म" को भी "पूर्ण" मोक्षमार्ग का (परम) "ज्ञान" नहीं है क्योंकि तत्त्वज्ञान की जानकारी गीता ज्ञानदाता को, अर्थात "क्षर ब्रह्म" को भी नहीं है जो परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) ने अपने मुख से बोला होता है। उसको तत्त्वदर्शी सन्तों से जानने के लिए कहा है।

(स्रोत: स्वामी अप्रतिमानंदा जी) 

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