एक भिखारी था। उसने सम्राट होने के लिए कमर कसी और चौराहे पर अपनी फटी-पुरानी चादर बिछा दी, अपनी हांडी रख दी और सुबह-दोपहर-शाम भीख मांगना शुरू कर दिया, क्योंकि उसे सम्राट बनना था।
भीख मांगकर भी भला कोई सम्राट हो सकता है क्या?
किंतु उस भिखारी को इस बात का पता नहीं था। भीख मांगते-मांगते वो बूढ़ा हो गया और मौत ने दस्तक दी। मौत तो किसी को नहीं छोड़ती है। वो बूढ़ा भी मर गया।
लोगों ने उसकी हांडी फेंक दी और सड़े-गले बिस्तर नदी में बहा दिए। जमीन गंदी हो गई थी तो सफाई करने के लिए थोड़ी खुदाई की, और खुदाई करने पर लोगों को वहां बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ मिला।
तब लोगों ने कहा- बेचारा! कितना अभागा था, जीवन भर भीख मांगता रहा। और जहां बैठा था, अगर वहीं जरा-सी खुदाई करता तो सम्राट हो जाता था।
ऐसे ही हम भी जीवन भर बाहर की चीजों की भीख मांगते रहते हैं, किंतु जरा-सा भी यदि अपने भीतर गोता मारें और परमात्मा को पाने के लिए ध्यान का जरा-सा भी अभ्यास करें, तो हम उस आत्मखजाने को भी पा सकते हैं, जो हमारे अंदर ही छिपा हुआ है।
राजा जनक को अष्टावक्र महाराज के सत्संग का सानिध्य मिला, तो उनका बेड़ा पार हो गया। राजा परीक्षित को शुकदेव जी जैसे सत्गुरु मिले, तो उनका काम बन गया।
इसी तरह यदि हमको भी कोई आत्मज्ञानी संत-सत्गुरू मिल जाएं और उनका सत्संग मिल जाए तो हमारा भी बेड़ा पार हो जाएगा।
(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ)
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