तानसेन को कला का घमण्ड हो गया था। एक बार तानसेन की भेंट वल्लभ सम्प्रदाय के विठ्ठलनाथ जी से हुई। तानसेन उन्हें अपनी प्रशंसा और मुगल दरबार में अपनी पकड़ का अहसास कराने लगे। विठ्ठलनाथजी ने तानसेन को गीत सुनाने को कहा। तानसेन ने वह गीत सुनाया जो अकबर को बहुत पसन्द था। खुश होकर विठ्ठलनाथ ने तानसेन को एक हजार रूपए और दो कौड़ियां ईनाम के तौर पर दीं। विठ्ठलनाथ ने कहा- दरबार के मुख्य गायक के पद को ध्यान में रखकर हजार रूपए का ईनाम और ये दौ कौड़ियां मेरी ओर से आपकी गायन कला की सच्ची कीमत है।
दो कौड़ी का गायक बताए जाने से तानसेन आगबबूला हो गए। विठ्ठलनाथजी ने धैर्य रखने को कहा और गोविन्दस्वामी को गाने का इशारा किया। गोविन्दस्वामी ने भजन छेड़ा। भक्ति में विभोर हो गए, पीछे-पीछे तानसेन समेत सभी झूमने लगे। गीत समाप्त हुआ तो तानसेन की तंद्रा टूटी। विठ्ठलस्वामी से व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए कहा आपने मेरी सच्ची कीमत लगाई थी। मैं तो दो कौड़ी का ही हूँ।
विठ्ठलस्वामी बोले- ऐसा नहीं है। तानसेन, तुम उच्च कोटि के गायक हो लेकिन तुमने अपना संगीत अकबर को खुश करने के लिए समर्पित कर दिया है। तुम्हारा दायरा बहुत छोटा हो चुका है। गोविन्दस्वामी तुमसे पीछे हैं लेकिन यह उस प्रभु को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं जो संसार चलाते हैं। इनके संगीत का दायरा व्यापक है। तानसेन को बात समझ में आ गई।
हम पर विशेष कृपा करने के पीछे ईश्वर का उद्देश्य होता है हमें परखना। वह देखना चाहते हैं कि क्या हम उसके योग्य हैं ? आसमान छूते ताड़ के पेड़, जिसकी छाया किसी को नहीं मिलती, होने से अच्छा है दूर तक फैली घास बन जाना जो धरती के ताप से पैरों को तो बचाती है। भक्ति वही घास है जबकि विलासिता ताड़ का पेड़ !
(स्रोत: भारतीय लोकश्रुतियाँ)
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