मधुर स्वभाव

एक सन्यासी थे। नाम था उग्रानंद। स्वभाव उग्र नहीं  था, आनन्द ही उग्र था उनका।पदाचारी थे। जहां मौज लगी वहीं जमा लिया डेरा। 

एक बार घूमते घूमते एक गांव पहुँच गए। रात्रि हो रही थी तो जंगल में  ही पेड़ के नीचे डेरा डाल कर बैठ गये। कुछ देर बाद चले गए समाधि में। उसी दौरान गांव में चोरों ने मिलकर गांव वालों का पशुधन चुराकर गायब हो गए। 

गांव वाले पशुधन की खोज ढूंढ करते हुए उसी तरफ आए ओर समाधि लगाये महात्मा जी को चोर समझा। तय कर लिया कि ढोंगी चोर है। समाधि का तो बहाना कर के झूठी समाधि  में  बैठा है। 

गांव वालों ने महात्मा जी को समाधि अवस्था में बुरी तरह पीटा और पूरे शरीर पर गोबर मल दिया लेकिन उनकी समाधि लगी रही। 

उस गांव में ही एक पुलिस अधिकारी दौरे से  लौट रहा था, उसने यह दृश्य देखा तो मालूम पड़ा कि गांव वाले जिन्हें पीट रहे हैं वो तो महात्मा उग्रानंद जी हैं। अधिकारी उनका शिष्य था। उसने  उन सारे गांव वालों के विरूद्ध कार्यवाही कर रात को जेल में  डाल दिया। महात्मा जी की गंगाजल से सफाई की और फिर एक सिपाही उनके पास छोड़ चला गया। 

सुबह उग्रानंद जी समाधि से बाहर आए ओर सिपाही ने बात बताई तो वो तुरंत उस अधिकारी के पास रवाना हुए। वहां जाकर शिष्य को फटकारते हुए कहा कि उन्हें अभी छोड़ और अभी पेट भर मिठाई खिला। अधिकारी ने गुरूजी के आदेश की पालना की। उसने उन सभी से क्षमा मांग मिठाई खिलाकर रवाना कर दिया। 

बाद में उसने स्वामी जी से पूछा तो स्वामी जी ने कहा, 

   "बेटा मधुर व्यवहार व्यक्ति को निकटता देता है। घृणा व क्रूरता तो विभेदात्मक होती है। संत स्वभाव तो निर्मल सरिता होता है। उसे तो सबको साथ रखना है।"

(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ) 



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