गोस्वामी तुलसी दासजी एवम् रहीम समकालीन थे |
दोनों के मध्य काव्य के माध्यम से संवाद होता रहता था |
एक बार रहीम के मन में जिज्ञासा हुई कि कोई व्यक्ति गृहस्थ के जंजाल में फंसे रहकर भगवद् भक्ति कैसे कर सकता हे। सो, उन्होंने तुलसी जी को निम्नलिखित दोहा लिखकर भेजा -
"चलन चहत संसार की,
मिलान चहत करतार।
दो घोड़े की सवारी,
कैसे निभे सवार।।"
पत्रवाहक यह संदेस ले कर चित्रकूट में तुलसीजी को दिया | उन्होंने रहीम जी की प्रश्न पाती पर ही उत्तर में दोहा लिख भेजा -
"चलत चलत संसार की,
हरि पर रखो टेक।
तुलसी यूँ निभ जायेगें,
दो घोड़े रथ एक।।"
अर्थात, सांसारिक कर्मो को करते हुये भी दृष्टि प्रभु पर रहनी चाहिये | हाथ से कर्म करे और ह्र्दय प्रभु भक्ति में लींन हो , तो गृहस्थ रहकर भी हरि भक्ति सम्भव है।
(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियां)
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