एक प्रयास अध्यात्म की ओर - अध्यात्म

एक प्रयास अध्यात्म की ओर
भगवत गीता में लिखा है - यह शरीरी न कभी जन्मता है और न ही कभी मरता है, यह शाश्वत और अनादि है।
शरीर के मारे जाने पर भी यह कभी मारा नहीं जाता है।
जो करता बनता है उसको भोक्ता बनना ही पड़ता है।
जब तक करता है, तब तक अहंकार के साथ संबंध है, इसलिए साधक को चाहिए कि क्रिया को महत्व न देकर अपने विवेक को महत्व दें।
गीता में आया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है, फिर कर्मों से संबंध विच्छेद कैसे होगा?
उपाय है, अपने लिए कुछ न करना, अर्थात खाना-पीना आदि सदारण क्रियाओं से लेकर जप, ध्यान और समाधि संपूर्ण क्रियाएं दूसरों के लिए करता है।
दूसरों के लिए करना है- मैं कुछ भी नहीं करता हूं।
गुण ही गुणों में बरत रहे हैं।
ऐसा देखना ज्ञान योग है।
कर्म योग, ज्ञान योग तथा भक्ति योग तीनों दृष्टियों से अपने लिए लेश मात्र भी कुछ न करने से क्रिया और पदार्थ से अर्थात, प्रकृति विभाग से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है और एक चिन्मय सत्ता मात्र में अपनी स्वत: सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है।
यही सहजावस्था है और इस अनुभव के बाद कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता है।
किसी ने खूब कहा है 
"परमात्मा तू ही है,
मेरी इच्छा पूर्ण हो,
तू रहे और तेरी रजा रहे,
न मैं रहूं और न मेरी आरजू रहे"
(स्रोत: अज्ञात श्रद्धालु)

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