'परमतंत्रता' का अर्थ क्या है?
'परम' अर्थात प्रभु, ईश्वरी, परमेश्वरी, सर्वेश्वरी, ईश्वर, परमेश्वर, सर्वेश्वर (यदि आप आध्यात्म में विश्वास रखते हैं ) या सर्वोच्च प्राकृतिक शक्ति (यदि आप नास्तिक हैं )।
'तंत्र' अर्थात 'व्यवस्था'।
'परमतंत्रता' का अर्थ यह है: उस अदृश्य प्रभु या प्राकृतिक शक्ति का वह अदृश्य तंत्र/व्यवस्था जिसके द्वारा इस पूरे विश्व का सुचारू ढ़ंग से संचालन हो रहा है।
उपर्युक्त वर्णित परम शक्ति इस विश्व के सभी जीवों को बिना किसी भेदभाव के निरंतर धूप , पानी और हवा आदि उपलब्ध करवा रही है। यह परम शक्ति हमें ये सब प्राकृतिक उपहार बिना यह अपेक्षा किये कि हम इसे बदले में कुछ देंगे हमें सतत प्रदान कर रही है।
समाज के शांतिपूर्ण संचालन हेतु व्यवहारिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार के तंत्र/व्यवस्था की नितांत आवश्यकता होती है । किसी भी सभ्य समाज में अराजकता (Anarchy) के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
अधिकांश भारतीय परम शक्ति में पूरी आस्था रखते हैं। अतः ऐसे प्रत्येक भारतीय का यह स्वप्न होता है कि राष्ट्र का सरकारी तंत्र परमतंत्र की भाँति निःस्वार्थ भाव से बदले में नागरिकों से बिना किसी रिश्वत पाने की अपेक्षा के काम करे।
अर्थात, प्रत्येक भारतीय का यह स्वर्णिम स्वप्न है कि शासन व्यवस्था पूर्णरुपेण भ्र्ष्टाचारमुक्त हो।
अर्थात, उदाहरणतः शासन का पुलिस आदि जैसा तंत्र अदृश्य सदृश रह परोक्ष रूप से प्रत्येक नागरिक के हितों की रक्षा करे, परन्तु सामने आ कर रिश्वत आदि माँग कर न सताए....!
अर्थात, राजनेता किसी भी प्रकार के भ्र्ष्टाचार में न लिप्त हों।
संक्षेप में, प्रत्येक भारतीय का यह स्वर्णिम स्वप्न है कि शासन व्यवस्था परमतंत्र की भाँति सब भारतीय नागरिकों की देखभाल करे।
'स्वराज' और 'परमतंत्रता' में मूल भेद क्या है?
'स्वराज' की धारणा या सिद्धांत 'परमतंत्रता' की धारणा या सिद्धांत के अपेक्षाकृत बहुत संकीर्ण है और अरविंद केजरीवाल जैसे संकीर्ण मानसिकतावाले व्यक्तियों को राजनीती में आगे बढ़ने का गलत अवसर प्रदान करता है।
'स्वराज' की धारणा या सिद्धांत 'स्व' के ऊपर केंद्रित हो किसी व्यक्ति विशेष को पूरे समाज पर थोप देता है।
परन्तु , 'परमतंत्रता' की धारणा या सिद्धांत 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' की भावना को पुष्ट करते हुए किसी व्यक्ति विशेष को पूरे
समाज पर हावी नहीं होने देता है और सामूहिक नेतृत्व को ही सुदृढ़ करता है।
आप सब देशभक्त 'परमतंत्रता' की अवधारणा और सिद्धांत को समझने और आत्मसात करने हेतु स्वामी अप्रतिमानंदा जी( @Aprtemaanandaa ) के स्वर्णिम ग्रन्थ "वैश्विक सरकार और महान भारतीय परमतंत्रता का स्वप्न" को पढ़ने और पढ़ाने हेतु सादर आमंत्रित हैं। यह स्वर्णिम ग्रन्थ इंटरनेट पर निम्नलिखित वेबसाइट पर भी उपलब्ध है :
http://www.amazon.com/Vasudhiotic-World-Government-Indian-Paramatantrataa-ebook/dp/B00M1UZUAC/ref=la_B00M2IBNIQ_1_1?s=books&ie=UTF8&qid=1406728942&sr=1-1#reader_B00M1UZUAC ]
'परम' अर्थात प्रभु, ईश्वरी, परमेश्वरी, सर्वेश्वरी, ईश्वर, परमेश्वर, सर्वेश्वर (यदि आप आध्यात्म में विश्वास रखते हैं ) या सर्वोच्च प्राकृतिक शक्ति (यदि आप नास्तिक हैं )।
'तंत्र' अर्थात 'व्यवस्था'।
'परमतंत्रता' का अर्थ यह है: उस अदृश्य प्रभु या प्राकृतिक शक्ति का वह अदृश्य तंत्र/व्यवस्था जिसके द्वारा इस पूरे विश्व का सुचारू ढ़ंग से संचालन हो रहा है।
उपर्युक्त वर्णित परम शक्ति इस विश्व के सभी जीवों को बिना किसी भेदभाव के निरंतर धूप , पानी और हवा आदि उपलब्ध करवा रही है। यह परम शक्ति हमें ये सब प्राकृतिक उपहार बिना यह अपेक्षा किये कि हम इसे बदले में कुछ देंगे हमें सतत प्रदान कर रही है।
समाज के शांतिपूर्ण संचालन हेतु व्यवहारिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार के तंत्र/व्यवस्था की नितांत आवश्यकता होती है । किसी भी सभ्य समाज में अराजकता (Anarchy) के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
अधिकांश भारतीय परम शक्ति में पूरी आस्था रखते हैं। अतः ऐसे प्रत्येक भारतीय का यह स्वप्न होता है कि राष्ट्र का सरकारी तंत्र परमतंत्र की भाँति निःस्वार्थ भाव से बदले में नागरिकों से बिना किसी रिश्वत पाने की अपेक्षा के काम करे।
अर्थात, प्रत्येक भारतीय का यह स्वर्णिम स्वप्न है कि शासन व्यवस्था पूर्णरुपेण भ्र्ष्टाचारमुक्त हो।
अर्थात, उदाहरणतः शासन का पुलिस आदि जैसा तंत्र अदृश्य सदृश रह परोक्ष रूप से प्रत्येक नागरिक के हितों की रक्षा करे, परन्तु सामने आ कर रिश्वत आदि माँग कर न सताए....!
अर्थात, राजनेता किसी भी प्रकार के भ्र्ष्टाचार में न लिप्त हों।
संक्षेप में, प्रत्येक भारतीय का यह स्वर्णिम स्वप्न है कि शासन व्यवस्था परमतंत्र की भाँति सब भारतीय नागरिकों की देखभाल करे।
'स्वराज' और 'परमतंत्रता' में मूल भेद क्या है?
'स्वराज' की धारणा या सिद्धांत 'परमतंत्रता' की धारणा या सिद्धांत के अपेक्षाकृत बहुत संकीर्ण है और अरविंद केजरीवाल जैसे संकीर्ण मानसिकतावाले व्यक्तियों को राजनीती में आगे बढ़ने का गलत अवसर प्रदान करता है।
'स्वराज' की धारणा या सिद्धांत 'स्व' के ऊपर केंद्रित हो किसी व्यक्ति विशेष को पूरे समाज पर थोप देता है।
परन्तु , 'परमतंत्रता' की धारणा या सिद्धांत 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' की भावना को पुष्ट करते हुए किसी व्यक्ति विशेष को पूरे
समाज पर हावी नहीं होने देता है और सामूहिक नेतृत्व को ही सुदृढ़ करता है।
आप सब देशभक्त 'परमतंत्रता' की अवधारणा और सिद्धांत को समझने और आत्मसात करने हेतु स्वामी अप्रतिमानंदा जी( @Aprtemaanandaa ) के स्वर्णिम ग्रन्थ "वैश्विक सरकार और महान भारतीय परमतंत्रता का स्वप्न" को पढ़ने और पढ़ाने हेतु सादर आमंत्रित हैं। यह स्वर्णिम ग्रन्थ इंटरनेट पर निम्नलिखित वेबसाइट पर भी उपलब्ध है :
http://www.amazon.com/Vasudhiotic-World-Government-Indian-Paramatantrataa-ebook/dp/B00M1UZUAC/ref=la_B00M2IBNIQ_1_1?s=books&ie=UTF8&qid=1406728942&sr=1-1#reader_B00M1UZUAC ]
[फोटो: इंटरनेट के सौजन्य से]
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