कल जिस सपने को
तुमने तकिये के नीचे रखकर सोया था,
वो आज भी वहीं है—
बस उठकर
थोड़ा-सा हाथ बढ़ाने का इंतज़ार कर रहा है।
भविष्य कोई मेले की आख़िरी दुकान नहीं,
जहाँ पहुँचकर
सब कुछ एक साथ खरीद लोगे;
वो तो रसोई में चूल्हे पर रखी
धीमी आँच की दाल है,
जो हर रोज़ की आँच से
पक कर स्वाद बनती है।
तुम जो भी “चलो, कल देखेंगे” कहते हो न,
वहाँ से कल चुपके से
दो क़दम पीछे हट जाता है;
और जहाँ तुम थककर भी
“आज इतना तो कर ही लेता हूँ” कहते हो,
वहीं से भविष्य
कुर्सी खींचकर पास बैठ जाता है।
फिनिश लाइन कोई झंडा नहीं
जिस पर “हैप्पी एंडिंग” लिखा हो,
वो तो तुम्हारे जूते का घिसा तला है,
जिसने रास्ते भर
हर छोटा मोड़ सहकर
तुम्हें वहाँ तक पहुँचाया है।
सोचते रहते हो
कल कैसा होगा…
कभी रुककर देखो,
तुम्हारी आज की छोटी-सी “हाँ”
किसी बड़े कल की नींव में
ईंट बनकर जम चुकी है।
भविष्य कहीं आगे नहीं,
थोड़ा-थोड़ा
आज की जेब में रखा है—
तुम जो भी फैसला करते हो,
वहीं से आधा-आधा कल
चुपचाप लिखता रहता है।
— ✍️ आशुतोष पाणिग्राही।
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