एक संयासिनी थी। नाम था स्वामी उग्रानंदा। स्वभाव तो उग्र नहीं था, पर आनन्द ही उग्र था उनका!
पदाचारी थी। जहां मौज लगी वहीं जमा लिया डेरा।
एक बार घूमते घूमते एक गांव पहुँच गई। रात्रि हो रही थी तो जंगल में ही पेड़ के नीचे डेरा डाल कर बैठ गई।
कुछ देर बाद चली गई समाधि में। उसी दौरान गांव में चोरों ने मिलकर गांव वालों का पशुधन चुराकर गायब हो गए।
गांव वाले पशुधन की खोज ढूंढ करते हुए उसी तरफ आए और समाधि लगाये बैठी उग्रानंदा जी को चोर समझा।
तय कर लिया कि यही ढोंगी औरत चोर है। समाधि का तो बहाना कर के झूठी समाधि में बैठी है!
गांव वालों ने उग्रानंदा जी को समाधि अवस्था में बुरी तरह पीटा और पूरे शरीर पर गोबर मल दिया। लेकिन, उनकी समाधि लगी रही।
उस गांव में ही एक महिला पुलिस इंस्पेक्टर दौरे से लौट रही थी। उसने यह दृश्य देखा तो मालूम पड़ा कि गांव वाले जिन्हें पीट रहे हैं, वो तो उनकी गुरु माँ महात्मा उग्रानंदा जी हैं। वह पुलिस इंस्पेक्टर उनकी शिष्या थी।
उसने उन सारे गांव वालों के विरूद्ध कार्यवाही कर रात को जेल में डाल दिया।
महात्मा जी की गंगाजल से सफाई की और फिर दो महिला और पुरुष कोंस्टेबल को उनकी सुरक्षा करने के लिए उनके पास छोड़ कर चली गई।
सुबह उग्रानंदा जी समाधि से बाहर आई और सिपाहियों ने सारी बात बताई तो वो तुरंत उस अधिकारी के पास रवाना हुई।
वहां जाकर शिष्या को फटकारते हुए बोली,"उन्हें अभी छोड़ और अभी पेट भर मिठाई खिला!"
पुलिस इंस्पेक्टर ने गुरू माँ जी के आदेश की पालना की। उसने उन सभी से क्षमा मांग मिठाई खिलाकर उन्हें जेल से आजाद कर उनके घर रवाना कर दिया।
बाद में उसने स्वामी उग्रानंदा जी से पूछा कि दुष्टों को मिठाई क्यों खिलवाई तो स्वामी उग्रानंदा जी ने विनम्रता से कहा,
"बेटी! मधुर व्यवहार व्यक्ति को निकटता देता है! घृणा व क्रूरता तो विभेदात्मक होती है! संत स्वभाव तो निर्मल सरिता होता है! उसे तो सबको अपने साथ ही रखना होता है! उसके लिए कोई भी पराया नहीं होता है! वे तो हर प्राणि में उसी एक परमात्मा को देखती हैं...!"
प्रस्तुतिकर्ति:
सुजाता कुमारी,
सर्वोपरि संपादिका,
आत्मीयता पत्रिका
(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)
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