सच्चाई उस पंडित जी की जो सबसे बड़ा लुटेरा है? ( काल्पनिक प्रेरक कहानी )

जेठ की चिलचिलाती धूप में डरते और हड़बड़ाते हुए साइकिल को तेज गति से चलाते पंडित जी घर से 5 किलोमीटर दूर गांव में कथा कराने जा रहे थे सत्यनारायण भगवान की। पसीने में नहाए हुए थे और गला सूख रहा था। परंतु चिंता थी कि यजमान के यहां पहुंचने में देरी हो जाएगी।

दोपहर के 1:00 बज गए थे। पंडित जी साइकल से उतरे और यजमान के घर के सामने खड़े हो गए। यजमान बड़े ही क्रोध में आंखें लाल करके ऐसे तंज कसते हुए  बोले,"...आ गए पंडित! इसी तरह से रहा तो तुम्हारी पंडिताई ज्यादा दिन नहीं चलेगी. चलिए पूजा कराइए बहुत देर हो गई।"

और उस समय वह पंडित यह भी ना कह सके कि मैं प्यासा हूं और यजमान को यह दिखाई भी ना दिया ..। पूजा शुरू हुई। पूजा संपूर्ण होने के बाद लगभग 50 रुपए चढ़ावे के और 151 रुपए पंडित जी को दे दिया गया। प्रसाद के रूप में पंडित जी ने संकोचवश पंजीरी और रोटी ले ली। दो केले ले लिए और वापस अपने घर के लिए चल पड़े। 

घर पहुंचे तो पंडित जी की छोटी सी बेटी और बेटा दौड़ते हुए आए, "पिताजी क्या लाए हैं हमारे लिए? "

"बेटी देख लो! कुछ तुम्हारे खाने की चीजें हैं। प्रसाद हैं। तुम सब बांट के खा लो"

पंडित जी की बेटी ने कहा, "पिताजी आप लड्डू नहीं लाए। "

पंडित जी ने कहा, "बेटी यजमान लड्डू लाए तो थे। परंतु उतना ही कि उनके घर के लिए हो जाए। अतिरिक्त में नहीं था। जो है इसे खा लो। अगली बार अवश्य लाऊंगा। "

इतने में बेटे ने कहा, "पिता जी मास्टर जी ने कहा है स्कूल की फीस जमा कर दें। नहीं तो परीक्षा में नहीं बैठने देंगे।"

पंडित जी ने जवाब दिया" बेटा! मास्टर जी से कहना जल्दी ही फीस जमा हो जाएगी। "

इतने में पंडितानी बोली, "मेरी साड़ी बहुत पुरानी हो गई है। मुझे एक साड़ी चाहिए। "

पंडित जी का गला भर आया। 

कहने लगे, "तुम तो जानती हो कि मैं इस पौरोहित कर्म से इतना भी नहीं कमा पाता कि तुम सबको खुशहाल रख सकूं। परंतु क्या करूं? यदि अपने पूर्वजों की इस धरोहर को छोड़ दूं तो पूर्वजों की मर्यादा नष्ट हो जायेगी और यदि इसका पालन करूं तो मैं अपने बच्चों का पेट भी ना भर पाऊंगा। 

यदि मैं भी कहीं नौकरी कर रहा होता तो मेरे भी बच्चे प्राइवेट विद्यालय में पढ़ते। मैं भी तुम्हें अच्छे वस्त्र ले आ पाता और हम भी अपनी हर एक शौक को पूरा कर पाते। हमारे बाप दादाओं का जीवन एक लुंगी और धोती में बीत गया। मेरा भी जीवन इसी प्रकार बीत रहा है। फिर भी पता नहीं जाने क्यों लोग मुझे लुटेरा कहते हैंहैं! 

लग्न के समय में यदि दो चार शादियां करा दी तो लोग कहते हैं पंडित ने तो लुटाई मचा दी है! 

...किसी यजमान के घर से लौटे तो लोग कहते हैं कि पंडित, आज उसको कितने का चूना लगाया? 

...जाने क्यों लोग हमसे इस तरह की भावनाएं रखते हैं? हमने कब इसका धन लूटा है! हम तो सदैव ही सब के कल्याण की कामना करते हैं! फिर भी लोग हमें लुटेरा क्यों कहते हैं?"

विनम्र निवेदन है कि कृपया समस्त भारतीय और सनातन समाज इस बात को समझें की पौरोहित्य कर्म करने वाला कितना मजबूर होता है! ना तो वह किसी के यहां मजदूरी कर सकता है और ना ही वह अपने आत्म स्वाभिमान को बेच सकता है! क्या उसके सपने नहीं होते कि उसकी भी संतान अच्छे स्कूलों में पड़े, उसकी भी पत्नी के पास अच्छे गहने अच्छे कपड़े हो, वह भी अच्छे बड़े घरों में रहे और बड़ी गाड़ियों में....

सभी पुरोहित और ब्राह्मण लालची नहीं होते। शास्त्रों में लिखा है कि सच्चे ब्राह्मण का सबसे बड़ा गुण यह होता है कि वह संतोषी होता है। संभव हो तो योग्य और संतोषी ब्राह्मण, पंडित, और पुरोहित का यथोचित सम्मान करें..! 

प्रस्तुतिकर्ति

सुजाता कुमारी, 

सर्वोपरि संपादिका, 

आत्मीयता पत्रिका

(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध छाया चित्र)


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