ज़िन्दगी की शाम ढलने को है - ( मार्मिक कहानी)

किसी बात पर पत्नी से चिकचिक हो गई, वह बड़बड़ाते घर से बाहर निकला , सोचा कभी इस लड़ाकू औरत से बात नहीं करूँगा, पता नहीं समझती क्या है खुद को? जब देखो झगड़ा, सुकून से रहने नहीं देती! 

नजदीक के चाय के स्टॉल पर पहुँच कर चाय ऑर्डर की और सामने रखे स्टूल पर बैठ गया. 

आवाज सुनाई दी - "इतनी सर्दी में बाहर चाय पी रहे हो?"

उसने गर्दन घुमा कर देखा तो साथ के स्टूल पर बैठे बुजुर्ग उससे मुख़ातिब थे. 

"आप भी तो इतनी सर्दी और इस उम्र में बाहर हैं." 

बुजुर्ग ने मुस्कुरा कर कहा, "मैं निपट अकेला, न कोई गृहस्थी, न साथी, तुम तो शादीशुदा लगते हो!"

"पत्नी घर में जीने नहीं देती, हर समय चिकचिक,बाहर न भटकूँ तो क्या करूँ?"

गर्म चाय के घूँट अंदर जाते ही दिल की कड़वाहट निकल पड़ी. 

बुजुर्ग-: "पत्नी जीने नहीं देती? बरखुरदार ज़िन्दगी ही पत्नी से होती है. 8 बरस हो गए हमारी पत्नी को गए हुए, जब ज़िंदा थी, कभी कद्र नहीं की, आज कम्बख़्त चली गयी तो भूलाई नहीं जाती, घर काटने को दौड़ता है, बच्चे अपने अपने काम में मस्त, आलीशान घर, धन दौलत सब है पर उसके बिना कुछ मज़ा नहीं, यूँ ही कभी कहीं, कभी कहीं भटकता रहता हूँ. कुछ अच्छा नहीं लगता, उसके जाने के बाद! पता चला वो धड़कन थी मेरे जीवन की ही नहीं मेरे घर की भी.  सब बेजान हो गया है!"

बुज़ुर्ग की आँखों में दर्द और आंसुओं का समंदर था. 

उसने चाय वाले को पैसे दिए, नज़र भर बुज़ुर्ग को देखा, एक मिनट गंवाए बिना घर की ओर मुड़ गया. 

दूर से देख लिया था, डबडबाई आँखो से निहार रही पत्नी चिंतित दरवाजे पर ही खड़ी थी. 

"कहाँ चले गए थे, जैकेट भी नहीं पहना, ठण्ड लग जाएगी तो?" 

"तुम भी तो बिना स्वेटर के दरवाजे पर खड़ी हो!"

कुछ यूँ...दोनों ने आँखों से एक दूसरे के प्यार को पढ़ लिया! 

टिप्पणी: यदि आपकी आंखें इस कहानी को पढ़कर थोड़ी सी भी नम हो गई हों, डबडबा गईं हों तो अकेले में 2 मिनट चिंतन करें!

यदि यह कहानी १०० परिवारों को भी जोड़ने में काम आये तो इसे अपनी सहेलियों, साथियों, परिजनों एवं संस्कृति-प्रेमियों को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान अवश्य करें! 

प्रस्तुतिकर्ति

सुजाता कुमारी, 

सर्वोपरि संपादिका, 

आत्मीयता पत्रिका। 

(स्रोत: सर्वाधिक प्रचारित लोकप्रिय भारतीय जनसाहित्य) 



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