हज़रत सुल्तान बाहू के तड़प भरे वचन -
"इह तन मेरा चश्माँ होवे ते मैं मुर्शिद वेख न रज्जाँ हू!
लूं -लूं दे मुढ़ लाख -लाख चश्माँ, इक खोलाँ इक कज्जाँ हू!
ऐनिया डिठियाँ सबर न आवे, होर किते वाल भज्जाँ हू!
मुर्शिद दा दीदार है बाहू मैंनू लख करोड़ हज्जाँ हू!"
जब जीव पर शब्द धुन दया कर के पूरन मुर्शीद कामिल दरवेश से जोड़ देती हे जब वो मुर्शीद देह स्वरूप में इन आँखों के सामने दर्शन दे उस वक़्त हमें केसें दर्शन करने हे विचार करे बाहू जी के इन वचनों पर —
"ये मेरा समूचा शरीर आँखें बन जाए और मैं सारी आँखों से मुर्शिद (सतगुरु ) का दर्शन करूँ, तो भी मुझे उनके दर्शन से संतोष नहीं होगा। एक -एक रोम मेरा लाख -लाख आँख बन जाए, एक आँख खोलूं, एक बंद करूँ, जिससे दर्शन का तार टूटने न पाए, इतना देखने पर भी मुझे संतोष नहीं होता।"
बाहू साहब कहते हैं कि मुर्शिद का दीदार अर्थात सतगुरु का पावन दर्शन मेरे लिए करोड़ों हजों तीर्थों से बढ़कर है।
मुबारक हे हम सभी जीवों को जिसे परन मुर्शीद की शरण मिली हे!
ते नाम भी मिला हुआ ने!
क्या कदी साडे अंदरो बाहू जी के बताये अनुसार तड़प उठी उन्हादे दर्शनो वाली!
कदी उनहा दी देह स्वरूप को देख के रोम रोम आँख बंने!
नहीं बंने तो भाई देर ना करो ये वक़्त वापस नहीं आओना!
आख़िर विच अस्सी गुर नानक देव जी दे शबदो के ज़रिए मुर्शीद के आग्गे विनती करिये -
"आओ सजनी होओ देखा दर्शन तेरा राम!
आप नाड़े घर खड़ी तका!
मैं मन चाओ घनेरा राम!"
(स्रोत: भारतीय जनश्रुतियाँ)
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