एक फकीर अपने आपको पैगंबर समझता था। एक दिन उसके मन में ख्याल आया कि मैं पैगंबर हूं, और खुदा मुझसे खुश है और मुझसे बढ़कर उसका और कोई भी प्यारा नहीं है। उसने अर्ज की- या खुदा, जो मुझसे भी ज्यादा तेरा प्रेमी है, मुझे बता, मैं उससे मिलना चाहता हूं।
खुदा ने कहा- ऐ फकीर, बड़े-बड़े प्रेमी हैं।
फकीर बोला- कोई एक तो बताओ।
खुदा ने कहा- इंसान तो क्या, मैं एक पक्षी बताता हूं। वो अमुक पेड़ पर रहता है। उसके पास जा और मैं तुझे वर देता हूं कि तू उसकी बोली और वो तुम्हारी बोली समझ लेगा।
फकीर वहां पहुंच गया। उसने उस पक्षी को पेड़ पर बैठे देखा और बोला- कोई खुदा की बात सुना।
पक्षी बोला- ऐ फकीर, मुझे फुर्सत नहीं है। मैंने इतनी बात भी तेरे से इसीलिए की है, क्योंकि तू मेरे प्रीतम के पास से आया है।
फकीर ने पूछा- तू क्या करता है, जिससे तुझे फुर्सत नहीं है?
पक्षी ने जवाब दिया- मैं दिन-रात परमात्मा का ध्यान करता हूं। बस सिर्फ एक तकलीफ है, यहां से दूर एक चश्मा है, जहां जाकर मुझे पानी पीना पड़ता है।
फकीर ने पूछा- चश्मा कितनी दूर है?
पक्षी ने कहा- यह मेरे सामने जो गेंहू का खेत है, इससे आगे है।
फकीर बोला- यह तो कुछ भी दूर नहीं है।
इस पर पक्षी ने कहा- मैं तुझे क्या बताऊं, मेरे लिए तो इतना भी मुश्किल है, क्योंकि मुझे सुमिरन छोड़कर वहां जाना पड़ता है।
फकीर ने कहा- अगर मेरे लायक कोई सेवा हो तो बता।
पक्षी ने कहा- बस, उस चश्मे को मेरे पास ला दो।
फकीर ने कहा- यह तो नहीं हो सकता।
फिर और कोई भी सेवा नहीं है। ये कहकर वो पक्षी सुमिरन करने लग गया।
यह देखकर वो फकीर शर्मिंदा हो गया।
तात्पर्य
मतलब तो यह है कि जो भी परमात्मा के सच्चे आशिक होते हैं, और उनका परमात्मा के साथ इतना प्यार होता है, तो हर पल उनका ध्यान सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में और अपने सत्गुरु में ही लगा रहता है।
हम भी अपने आपको सत्गुरु का सेवादार समझते हैं। क्या हम भी अपने सत्गुरु नाम का पल-पल ध्यान करते हैं? क्या हम भी एक सच्चे सेवादार हैं? ये सोचना और समझना हमें खुद ही है।
(स्रोत: भारतीय लोकश्रुतियां)
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