आँखों को मिंच कर और कानों को बंद कर के अंतर में माथे से, ब्रह्मरंध्र या कानों से सुनाई देने वाली उपरी मण्डलों की ध्वनियाँ वास्तव में स्वर्ग/ महास्वर्ग से उत्पन्न होती हैं. स्वर्ग/ महास्वर्ग की ये ध्वनियाँ सारशब्द नहीं हैं.
निरति कहते हैं इस शरीर की आँखों को मिंच कर, आत्मा की अंतर में देखने की शक्ति को. सुरति कहते हैं इस शरीर के कानों को बंद कर के, आत्मा की अंतर में सुनने की शक्ति को.
सारशब्द को सुरति से सुना जाता है. सारनाम/आदि नाम को मन में या जीभ से जप सकते हैं. परंतु, सारशब्द को केवल सुरति से ही सुन सकते हैं. यह कभी अंतर में सुनाई देता है तो कभी साधक-साधिका को अपने शरीर के बाहर से आता हुआ सुनाई देता है.
जब साधक-साधिका अपने शरीर को पूरी तरह साध लेते हैं तब साधक-साधिका को, इस मनुष्य-शरीर की आँखों को बिना मींचे ही, कानों को बिना बंद किये ही सारशब्द अपने आप ही साधक-साधिका के मनुष्य-शरीर के बाहर से आता सुनाई देने लगता है. इसके बारे में कबीर जी ने यूँ लिखा है, "निरंतर शब्द मन लागा मलिन वासना त्यागी, उठत बैठत कभी न छुटे ऐसी तारी लागी." ऐसी परम आनंदित अवस्था में, शोर शराबे में तो सारशब्द और अधिक गूंजने लगता है.
जिसे सत्गुरु जी की कृपा से सारशब्द मिल गया और जिसने इसका रसपान कर लिया, उस साधक-साधिका का मनुष्य चोले में जन्म लेना सफ़ल हो गया. ऐसे साधक-साधिका अंत में परम शांति पा जायेंगें क्योंकि उनकी आत्मा इस शरीर को छोड़ने के बाद सार शब्द में समा जाएंगी.
यह मैं अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर डंके की चोट पर कह रहा हूँ.
- डॉ स्वामी अप्रतिमानंदा जी
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