कोई तो किश्त है जो शायद अदा नहीं है,
साँस बाक़ी है और हवा नहीं है!
नसीहतें, सलाहें, हिदायतें तमाम
पर्चे पर हैं, पर दवा नहीं है!
आँख भी ढक लीजिये संग मुँह के,
मंज़र सचमुच अच्छा नहीं है!
रक्त बिका, पानी बिका, आज बिक रही है हवा
कुदरत का ये तमाचा बेवजह नहीं है!
हरेक शामिल है इस गुनाह में,
क़ुसूर किसी एक का नहीं है!
वक्त है अब भी ठहर जाओ,
अभी सब कुछ लुटा नहीं है.....
(स्रोत: भारतीय लोक काव्य)
Comments